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________________ 'नमो' की आज्ञा सूचकता : लोक व्यवहार में भी शब्द रचना में ओकार 'ओ' अक्षर का उच्चार आज्ञा के अर्थ में होता है । शब्द के अंत में 'ओ' अक्षर रखकर आज्ञा प्रदान की जाती है । आओ, जाओ, खाओ, पीओ, रहो, चलो, बैठो, उठो, खेलो, दोड़ो, कुदो, नाचो आदि सैंकड़ो धातुओं के, अन्त में ओकार लगाकर बोलने में आज्ञा की ध्वनि स्पष्ट दिखाई पड़ती है । इसी प्रकार नमो (णमो) शब्द में भी आज्ञा की ध्वनि रही हुई है । नम् + ओ = नमो अर्थात् नमते चलो, नमस्कार करते जाओ, पर किसे इसी लिये अरिहंताणं पद रखा है । अरिहंतो को नमी, सिद्धो को नमो आचार्यों को नमो, उपाध्यायो को नमो, साधु महाराजाओं को नमो । इस प्रकार महामंत्र में नमो आज्ञा स्वरुप है और किन्हें नमन करना है ? तो इसके लिये पंच परमेष्ठियों को बताया है, उन्हें ही नमो इनमें भी अरिहंतादि पाँच परमेष्ठी वाले पदों में भी नमो पहले आगे रखा गया है । यह क्रम भी पहले नमने की आज्ञा करता है । अरिहंतादि पंच परमेष्ठी भगवंतों के पास जाओ तो नमन करके जाओ । प्रथम नमन करो और बाद में उन्हें मिलो इतना भाव मन को समझा दें तो कितना अच्छा होगा ? नमः की सिद्धि : __प्राकृत भाषा में नमो और 'न' का 'ण' होने से णमो इस प्रकार दोनों हैं । णमो प्राकृत भाषा का शब्द हैं । इस का संस्कृत नमः होता है । संस्कृत भाषा के नमस अव्यय से नमो बनता है नमः नैपातिक सिद्ध पद हैं, संस्कृत व्याकरण के साधनिका क्षेत्र में नमः को निपात सिद्ध कहते हैं । यह स्वयंसिद्ध है । नम् धातु संस्कृत में नमाने के अर्थ में प्रयुक्त है । ‘नम धातु को असुंच प्रत्यय लगाने से नमस् बनता है । स् का र् और (र पदान्ते विसर्गस्तयोः) के नियम से नमः बनता है । नमस् नमर् और अंत में नमः बनता है । इसका प्राकृत मे नमो बना । नमो निपात सिद्ध नैपातिक पद है और अव्यय है । अव्यय स्थिर भाव से सदा सर्वत्र एकसा ही रहता है । चन्न व्येति तदव्ययम्। के नियमानुसार अव्यय उसे कहते हैं जिसका कभी भी व्यय न हो - जो कभी भी नष्ट न हो । हम सभी ऐसे नमो भाव की सतत उपासना करें और उसके द्वारा अव्यय पद की प्राप्ति करें यही शुभ भावना... 126
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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