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अर्थात् नियंत्रण में रखकर माला फेरनी थी, परन्तु साधक की भूल हो गई है जिसके कारण मन को तो स्वच्छंद छोड़ दिया और माला का मनका हाथ में आ गया तो साधक उसे ही फेरने में निमग्न हो गया है, परन्तु इस में तो कई वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी साधना साध्य की ओर आगे नहीं बढ़ पाएगी - साध्य को साध नहीं पाएगी । अतः मन की ही साधना करनी है, अर्थात् मन को साधने की ही साधना करनी है । नमस्कार मानसिक साधना है :
___ वर्ण विपर्यास करके जो मन को नमाने की बात की है उस में मन को ही मनका बनाकर उसे ही नमाना है । शारीरिक नमस्कार के साथ साथ मानसिक नमस्कार करना है । शरीर जब नमता है तब हमें अंदर देखना चाहिये । आंतरदृष्टा बनकर अंदर दृष्टिपात करना चाहिये कि अन्दर से मन नमता है या नहीं । यदि भाव जागृत होते हैं तो समझ लें कि मन नम रहा है । यदि नमस्कार के भाव ही जागृत न होते हो तो समझ लें कि यह तो मात्र कायिक शारीरिक नमस्कार है, परन्तु मानसिक नमस्कार नहीं हुआ । कायिक नमस्कार को द्रव्य अथवा बाह्य नमस्कार कहा है, जब कि मानसिक नमस्कार को ही भाव अथवा आभ्यंतर नमस्कार कहा गया है । द्रव्य या बाह्य कायिक नमस्कार तो हमने अनेक किये, वर्षों से करते चले आ रहे हैं ... परन्तु अब साधना के क्षेत्र में कुछ आगे बढ़े और भाव अर्थात् आभ्यंतर नमस्कार करना सीखें । ऐसा करते करते अपनी यह नमस्कार की साधना सार्थक और सफल हो जाएगी ।
अतः नमस्कार मन को साधने की साधना है, मन के द्वारा करवाने की साधना है, मानसिक साधना है । इसे मात्र कायिक ही न रखें । मानसिक साधना होगी, तभी मन तक पहुँचेगी, मन को प्रभावित करेगी तभी कुछ भाव पैदा होंगे। तभी चिंतन की धारा शुरु होगी । अध्यवसाय की शुध्दि होगी, परिणामों की वृद्धि होगी - अन्यथा संभव नहीं है । मन को काम में लगाने की, मन को पिरोने की, नमस्कार में मन को पिरोने की साधना नवकार की साधना है । नवकार के लिये ही 'मन' को नमस्कार के कार्य में पीरो सकेगी नमस्कार करने के काम में मन को लगा सकेगी । इसीलिये मन को साधने, मन को वश में रखने मन को जीतने का सरल-सादा उपाय नवकार की साधना है । यह सुंदर है, उत्तम है और सरल भी है।
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