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करने के अर्थ में संस्कृत व्याकरण में है, नम् अर्थात नमना नमन करना । इस प्रकार मन को ही अन्दर ही अन्दर संबोधित कर समझाते हुए कहें कि हे मन तू नम, हे मन तू नम... नमन करता जा, नमस्कार करता जा, नमस्कार महामंत्रे जपता जा, गिनता जा, ध्यान जाप आदि साधना करता जा, जिससे संभव है मन को वश में किया जा सके । अतः मन को नमः नमन करने के कार्य में जोड़ देने से भी मन साधा जा सकेगा ।
मन को नमाते हुए नमस्कार
हाथ जोडना, मस्तक नमाना, पंचांगप्रणिपात में पाँचो ही अंगो को नमाना अथवा साष्टांग दंडवत् नमस्कार में संपूर्ण देह को भूमि पर सुला देना आदि शरीर के अंगों को नमानेपूर्वक की इस क्रिया को हम शारिरिक नमस्कार कहेंगे, परन्तु इससे भी बढ़कर विशेष मानसिक नमस्कार हम किसे कहेंगे ? क्या नमस्कार मात्र शरीर से ही करें और मनोजन्य मानसिक नमस्कार क्या न करें ? क्या मन से नमस्कार नहीं होता ? नहीं- ऐसी बात नहीं है । हमारा नमस्कार मात्र कायिक ही रह जाता है, मानसिक नहीं होता, इसीलिये तो मन पर हमें विजय नहीं मिलती. और हम मात खा जाते हैं । इसी हेतु से हमें साधना के क्षेत्र में कहा जाता है कि माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर । कर का मनका डाल दे, मन का मनका फेर ॥
सत्य ही कहा है कि हे जीव ! माला हाथ में फेरते फेरते तो युगों के युगं व्यतीत हो चुके हैं । (युग वर्ष वाचक संज्ञा है । पाँच वर्ष का एक युग कहलाता है) इतने युगों के सैंकडों वर्ष माला फेरते फेरते बीत चुके हैं, फिर भी अभी तक मन का फेर नहीं हुआ । मन में तनिक भी अन्तर नहीं पड़ा अतः अब हाथ में रही हुई मनकों की माला को छोड़ दे और उसके स्थान पर इस मन को ही मनका बनाकर हाथ में रखकर अर्थात् स्ववश करके फिराना शुरु कर । यहाँ कवि मनका शब्द का प्रयोग करके मन को ही मनका बनाकर धागे में पिरोकर फेरने का निर्देश देते हैं । माला क्या है ? १०८ मनको को धागे में पिरोया कि वह माला बन गई। इस माला फेरते हैं, परन्तु इससे तो कई वर्ष युग बीतने पर भी मन में कुछ भी परिवर्तन नहीं आता अतः यह एक विचारणीय बिन्दु है ।
पकड़ना तो मन को ही था । मन को ही मनका बनाकर इसे ही हाथ में
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