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मोक्षगमन ही रहता है ।
इस प्रकार धैर्यतापूर्वक साधना करते ही जाना चाहिये । विद्यार्जन करने वाला विद्यार्थी कदाचित असफल हो भी जाए तब भी उसे शाला से उठाकर घर नहीं बिठा देतें । यदि उसे घर बिठा दोगे तो वह कभी भी उत्तीर्ण नहीं होगा । विद्यालय में होगा तो इस वर्ष नहीं तो आगामी वर्ष में भी उत्तीर्ण अवश्य होगा । इसी प्रकार यह मन साधना के क्षेत्र में कदाचित् नवकार गिनने में असफल हो जाए, तब भी माला गिनना छोड़कर मन को अन्य कार्य में जुटाया नहीं जा सकता, क्योंकि यदि माला का त्याग कर देंगे, नवकार छोड़ देंगे तो कभी भी यह मन साधा नही जा सकेगा । अतः कभी भी यह मन तो नमस्कार से ही साध पाएंगे । यही इसकी कुंची है । ऐसा समझकर साधना में बाधा न आने दें - यही लक्ष्य रखना है ।
दूसरी बात यह है कि अनादि अनंत काल से मन तो भटकने का आदि है। मन के संस्कार तो इंद्रियों के पीछे दौडने के ही हैं, - विषय वासना में आनंदित होने के ही है । इसमें तो नवकार की साधना करने के संस्कार ही नहीं हैं - इसे i तो इसकी आदत ही नहीं है । इसे तो बलपूर्वक हमें स्थिर करना होगा, अतः यह मन तो थोड़े बहुत नाटक करेगा ही । बालक को विद्यालय जाना और पढ़ना रुचिकर नहीं लगता है, उसे तो खेलना ही प्रिय है तो क्या किया जाए ? क्या उसे विद्यालय न भेंजे ? उठाकर उसे घर बिठा देंगे तो परिणाम क्या आएगा ? ऐसी ही स्थिति मन की । इसे भी विषय कषाय का, रंग-राग का, मौज - शौक का ही 1. संसार प्रिय लगता है । इसी में इसे आनंद आता है । जिसकी जैसी आदत, जिसके जैसे संस्कार और स्वभाव उसे उन्हीं में आनंद आता है । उपाध्यायजी यशोविजयजी महाराज ज्ञानसार अष्टक में फरमाते हैं
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मज्जत्यज्ञ : किलाज्ञाने, विष्ठायामिव शूकर: । ज्ञानी निमज्जति ज्ञाने मराल इव मोनसे ||
इस प्रकार समझ कर मन को समझा बुझा कर मन से कार्य करवाना है मन को भूतकाल में ऐसे सुंदर संस्कार साधना के नहीं पड़े, बल्कि वासना के ही संस्कार पड़े है, अतः बेचारा मन अब क्या करेगा ? जैसे ही हमने माला हाथ में ली कि मनजी भाई को चैन हुई । लगे घूमने-फिरने ! भटकने का इन्हें तो मानो अवकाश मिला ! निश्चिन्त होकर भ्रमण करने जाएँगे, परन्तु भ्रमण करने कहाँ
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