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जाना ? इसका निर्णय यह मन अपनी आदतों के अनुसार करता है । इस प्रकार मन को जाने की स्वतन्त्रता मिल जाती है और माला गिनते समय मन भटकने लग जाता है, कुविचारों में चढ़ जाता है, परन्तु इससे घबराने की आवश्यकता नहीं है । यदि उब कर माला को ही छोड़ दोगे अथवा नवकार ही छोड़ दोगे तो यह मन कभी भी वश में नहीं आएगा, अतः मन को साधना ही हो, तो साधना छोड़ने से कार्य सिद्धि नहीं होगी ।
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अतः यह समझकर ही आगे बढ़ना है कि... माला गिनते गिनते भी यह मन कुविचारों पर चढ़ता है, अकरणीय विचार करता है ... कोई बात नहीं, माला या नवकार गिनते गिनते मन की पहचानने का तो ज्ञान हुआ । बहुत अच्छा हुआ । इस प्रकार प्रारंभ में मन को पहचानना भी बहुत जरुरी है । इस प्रकार भी मन की 'आदतों इसकी क्रीडा, इसका स्वभाव इसके संस्कार आदि परिचय हो जाय, तो मन को साधना संभव है - शक्य है सरल है और सुविधाजनक हो जाता है । अतः मन के कारण नवकार या माला को न छोडे ।। सभी नमस्कार निष्फल या निरर्थक ही जाते हैं - ऐसा मानने की आवश्यकता नहीं है । यह साधना का क्षेत्र है, साधना
क्षेत्र छोटा है, पर इस में काल लंबा लगता है, गिनते गिनते आज नहीं तो कल एक दिन एक ऐसी नवकार अवश्य आएगी कि जिससे हम भी बाहुबली की केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्षगमन कर सकेंगे ।
मन की साधना के लिये नमः
मनः एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयोः । तत्त्वार्थ सूत्र ॥ क्षणेन सप्तति याति जीवस्तंदुलमत्स्यवतः ।
मन ही मनुष्यों के लिये कर्म बंध और मोक्ष दोनों का कारण है । क्षण में तो यह जीव को सातवी नरक में भी ले जाता है, जैसे कि तंदुल नामक छोटी सी मछली को सातवीं नरक में जाना पडता है । समुद्र में विशाल - काय मगरमच्छ की आँख की पलक के किनारे के बाल में रहने वाला चावल के दाने जितना छोटा सा जीव - तंदुल मत्स्य भी मगर को मुँह फाड़कर मछलियों का आहार- पानी लेते हुए और पानी बाहर फेंकने के साथ ही दाँतों के बीच से छोटी छोटी मछलियों को बाहर निकलते हुए देखता है तो यह दृश्य देखकर तंदुल मत्स्य विचार करता है। कि यदि मगर के स्थान पर मैं होता तो एक भी मछली को जीवित नहीं छोड़ता -
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