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________________ बायी और गया, अतः पाँचवा फेंका तो वह शाखा से टकरा कर गिर पडा । इस प्रकार समझ समझ कर उस लक्ष्य की ओर ध्यान रखते हुए वह पत्थर फेंकता ही गया तब कहीं अंतिम सत्ताईसवे पत्थर से आम गिरा । इस प्रश्नंन को सुक्ष्म दृष्टि से देखें तो स्पष्ट ख्याल आएगा कि वास्तव में एक भी पत्थर निरर्थक या व्यर्थ नहीं गया, क्यों कि प्रत्येक पत्थर ने लक्ष्य सोचने के लिये कुछ न कुछ तो सिखाया ही है । इस प्रकार सभी पत्थर उपयोगी हुए है। इस उपमा का घटक दृष्टान्त से नवकार महामंत्र के विषय में विचार करें। कोई साधक १०८ मणकों की माला फेरता है और कोई प्रतिदिन ८ से १० मालाएँ गिनता है । कोई एक माह में ४०० से ५०० तक भी मालाएँ गिनते होंगे और कोई वर्ष में एक-दो लाख नवकार भी गिनते होंगे । प्रश्न यह उठता है कि 'सिद्धाणं बृद्धाणं' सूत्र के कथनानुसार तो एक ही ऐसा नमस्कार करते हुए नवकार गिन लें कि जिससे बाद में बार बार नित्य वर्षों तक नवकार गिननी ही न पडे । बात आपकी सही है, परन्तु जिस प्रकार उस बालक को पता नहीं था कि यही सत्ताईसवाँ पत्थर है, उसी प्रकार हमें भी यह कहाँ पता है कि यही एक अन्तिम नवकार है और इस के पश्चात अब गिनने की आवश्यकता नहीं है । ऐसी कक्षा की अन्तिम नवकार तो आई नहीं न ? अतः नित्य गिननी ही पड़ती हैं । जिस प्रकार बालक द्वारा फेंका गया एक भी पत्थर निरर्थक अथवा निष्फल नहीं गया उसी प्रकार हम जैसे साधकों के द्वारा गिनी जानने वाली नवकारों में से एक भी नवकार निष्फल नहीं जाती ऐसा ही मानकर चलें । भलें ही नवकार गिनते समय कुविचार आते हैं, गलत अशुद्ध उच्चारण होता है, - सभी बातें सही हैं परन्तु इसका भी पता कहाँ से कब चला ? एक नवकार गिनने के बाद पता चला कि इस में तो ऐसे विचार आए हैं अतः दूसरी नवकार में ध्यान रखें, दूसरी में ऐसे विचार आए अतः तीसरी में ध्यान रखें और तीसरी में निद्रावश हो गए अतः चौथी में जागृत रहें, पाँचवी में माला हाथ से गिर पड़ी अतः छठी में अधिक सावधानी रखें । इस प्रकार क्रमशः होता ही रहेगा, परन्तु यदि हम लक्ष्य अथवा साध्य को सामने रखकर साधना करते रहेंगे तो सावधानी आते आते एक दिन अंतिम नवकार भी प्राप्त हो जाएगी जैसे बाहुबली को बारह माह लगे और आखिरकार एक अंतिम नवकार ऐसी आ ही गई कि सीधा केवलज्ञान ही हो गया। बस फिर, तो कोई प्रश्न ही न रहा । केवलज्ञान अप्रतिपाती होने से फिर तो सीधा - 120
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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