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स्व + भाव = स्वभाव कहलाता है । स्व अर्थात् आत्मा और भाव अर्थात् गुण । आत्मा के गुणों को स्वभाव कहते हैं । क्रोधादि कषाय करना आत्मा के गुण नहीं हैं - ये स्वभाव नहीं हैं, बल्कि ये तो बहिर्भाव हैं। स्वभाव में तो आत्मगुणों का ही समावेश होता है । प्रथम विचार करें कि नमस्कार आत्मा का गुण है । रेलगाड़ी में जिस प्रकार एंजिन आगे होता है और उसके पीछे डिब्बे होते हैं, वैसे ही सभी गुणों में नमस्कार गुण सबसे आगे होता है । नमो भाव सभी भावों में सबसे अग्रणी रहने वाला प्रथम गुण है । नवकार के जाप से, चिन्तन से अथवा ध्यान से यदि एक नमस्कार गुण से नम्रता की वृत्ति या नमोभाव प्रकट हो जाए तो अन्य सभी गुण उसके पीछे पीछे स्वत्वः चले आएँगे । .
किसी की भी नम्रता के प्रथम दर्शन होने के बाद यह अनुमान लगता है कि यह व्यक्ति अच्छा है । इस प्रकार नम्रता का गुण नमो भाव देखने के पश्चात् इसका स्वभाव अच्छा होगा यह अनुमान प्रायः गलत सिद्ध नहीं होता, क्यों कि नम्र व्यक्ति अपने अहंकार मान-अभिमान, उदंडता, उच्छलता, अविनय आदि दोषों दुर्गुणों से मुक्त होता है । अतः ऐसे गुणीजन के मुख से चाहे जैसे अपशब्द, गाली गलौच अथवा अभिमान प्रदर्शन आदि दिखाई नहीं देंगे ।। अतः नमोभाव प्रकट हो तो स्वभाव उत्तमोत्तम हो सकता है । नमोभाव के पीछे अन्य सभी स्वभावों की स्थिति रही हुई है । इस एक को ही प्रकट करने का प्रयत्न करें तो लाभप्रद है, अतः यथाशक्य अधिकतम नम्र बनने का प्रयत्न करना चाहिये । इस संकल्प में नमस्कार महामंत्र अपनी पूरी सहायता करेगा - इस में जरा भी शंका नहीं है।
लघुता और प्रभुता :.
अनेकान्तवाद में अनेक वादों कथनों का समावेश है । वस्तु को अनेक प्रकार से देखने की, अनेक अपेक्षाओं से विचार करने की विचारधारा अनेकान्तवाद ने दी है । पूर्व में हमने विचार किया था कि नमस्कार स्वपक्ष में लाभकर्ता है, परपक्ष में नहीं । वहाँ कहने का आशय भिन्न था । यहाँ हम लघुता और प्रभुता के दृष्टिकोण से विचार कर रहे हैं । नमस्कार क्रियात्मक बन जाने के पश्चात् बार बार यदि सतत उपयोग में आता रहे तो वह नम्रता गुण को प्रकट कर देता है । पुनः पुनः घिसने व घुटने पर औषध भी भस्म बन जाती है, अपूर्व शक्तिमय भस्मौषधि बन जाती है, बड़ी उपयोगी हो जाती है । इसी हेतु से नमस्कार को ही
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