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________________ होती तब तो अनेक पत्थर पड़े हैं, अनेक विशाल शिलाएँ पड़ी है उन्हीं की पूजा क्यों न करते ? तब निरर्थक ही लाखों रुपये खर्च कर ऐसी अद्भुत मूर्तियों की रचना क्यों करवाएँ ? लाखों रुपयों के व्यय से मूर्तियाँ भरवाना और फिर लाखों रुपये खर्च कर उनकी प्राण प्रतिष्ठा करवाना आदि आवशयक ही न था । क्या ऐसा करने वाले सभी लोग मूर्ख थे ? ऐसा मानने में भी हमारी ही मूर्खता का प्रदर्शन होता है और इस प्रकार यदि पत्थरों की ही पूजा करनी होती तब तो बड़े बड़े हिमालय जैसे पर्वतों की ही पूजा कर लेते, पर ऐसी बात नहीं हैं । 'नमो अरिहंताणं' का मंत्र पद भी इस पूजा में चरितार्थ हो जाता है, जाप में इस पद का उच्चारण होता है, पूजा में इसका आचरण होता है - इसे चारित्र में डाला जाता है । दर्शन की प्रक्रिया में भी इस पद का आचरण होता है, अतः दर्शन अथवा पूजा नमो भाव से, पूज्य भाव से नमस्कार महा मंत्र के आचरण की ही क्रिया हुई, नवकार को ही चरितार्थ करने वाली क्रिया हुई । जाप में जो नवकार सैंद्धान्तिक Theoritical थी, वही नवकार महामंत्र जिनालय में दर्शन-पूजन की क्रिया में प्रयोगात्मक Practical हो गया है । मंदिर में हम नवकारमय बन जाते हैं । पंच परमेष्ठियों की पूजा अर्थात् पाँचों ही परमेष्ठियों के प्रति नमोभाव, नमस्कार गुण को भाव कक्षा तक विकसित कर देते हैं । इस प्रकार नमो भाव में पूजा समाहित है, पूज्य भाव रहा हुआ है, जीवलक्षी गुणों का दर्शन रहा हुआ है जीवलक्षी नमस्कार है, अजीव - जड़लक्षी नमस्कार नहीं है। नमस्कार नम्र बनाता है :-- मनुष्य सामाजिक प्राणी है । समाज में जीने के लिये सर्व प्रथम सुंदर योग्य स्वभाव की आवश्यकता होती है । स्वभाव यदि बुरा हो, तो स्वयं का जीवन तो दुःखदायी बनता ही है, परन्तु साथ ही साथी व्यक्ति का जीवन भी नीरस बन जाता है । अच्छा सुंदर स्वभाव किसे कहते हैं ? और बुरा स्वभाव किसे कहते हैं ? यह हम सभी भली प्रकार जानते हैं और साथ ही हम इस बात से भी सुपर्सिचत हैं कि हमारा स्वभाव कितने प्रतिशत अच्छा है, तथा कितने प्रतिशत बुरा है ? इसी प्रकार अन्य अनेक लोगों के स्वभाव से भी हम परिचित हैं । स्वभाव को सुधार कर भली प्रकार यदि हम जीवन थापन करते हैं तो जीने का भी आनन्द है, अन्यथा तो बुरें स्वभाव में जीना एक प्रकार का दंड भुगतना है । 113
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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