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नमस्कार से कर्मक्षय :
इस प्रकार घड़े की भाँति काया रुपीघड़े को संपूर्णतः नमाने से अन्दर के भूतकाल के बासी दुर्भाव, अहंकार वृत्ति के पाप, अशुभ कर्म निकलते जाएँगे । आत्मा ऐसे अशुभ कर्मों को उगल सकेगी बस, यह प्रक्रिया सुंदर है । पंचांग प्रणिपात ही काया का पूर्णरुप से नमा देने वाला पूर्ण वंदन है। हिन्दू धर्म में होने वाले साष्टांग दंडवत् नमस्कार की अपेक्षा यह अधिक सुंदर और पूर्ण वंदन है । साष्टांग में शरीर के आठों ही अंग दंडवत् अर्थात् डंडा या लकड़ी जमीन पर सीधी पड़ी रहती है, संपूर्णरुप से पृथ्वी का स्पर्श करती हो । उसी प्रकार सम्पूर्ण शरीर को दंड की तरह पृथ्वी पर स्पर्श करवाना होता है, इसीलिये दंडवत शब्द का प्रयोग हुआ है । अर्थात् दंड की तरह साष्टांग अर्थात् अष्ट-आठ अंग सहित सीधे दंड की भाँती जो नमस्कार हो उसे साष्टांग दण्डवत् नमस्कार कहते हैं ।
इस प्रकार साष्टांग दंडवत् और पंचांग प्रणिपात इन दोनों में अन्तर देखे तो लगता है कि अधिक
नमन करवाने वाला पंचांग प्रणिपात है। यह - काया को सीधी नहीं रखता, बल्कि कमर से
झुकाकर कमर पीठ का भाग उभरा हुआ रखकर
मुँह भूमि पर स्पर्श करवाकर संपूर्णतः नेत की बेत की तरह मोड़कर नमाएगा, जिससे अन्दर का सब कुछ पुराना बाहर निकलेगा।
इस प्रकार पंचांग प्रणिपात के नमस्कार में जितना महत्व काया को झुकाने नमाने का है उतना ही महत्व मन को नमाने का भी है।
पंचांग नमाते हुए दिये जाने वाले खमासमणे के साथ साथ जो थोभवंदन सूत्र बोला जाता हैं, उस में 'वंदिउं' शब्द वंदन के भावों का प्रदर्शन करता है । इस में मन नमन करता है जब कि 'जावणीज्जाए' शक्तिपूर्वक सुख शाता पूछते हुए और 'निसीहिआए' अर्थात् पाप प्रवृत्ति का त्याग करते हुए अथवा अविनय आशातना का भी त्याग करते हुए मैं नमन करता हूँ वंदन करता हूँ।
वंदन करने के लिये नमन करने के लिये प्रयुक्त इस छोटे से सूत्र में भी यहाँ, 'निसीहिआए' शब्द क्यों रखना पड़ा ? इसका कारण यह है कि ऐसे ही नमन नहीं करना है, बल्कि पाप का त्याग करते करते अनिवय आशातना का
TRANSL नमः
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