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संभव है । अतः अब तो हमें इसी दिशा में प्रयत्न करना चाहिये । इनके गुणों की ही माला फेरनी चाहिये । उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज कहते हैं कि 'तेरे गुण की जपुं जपमाला' 'हे भगवन् ! मैं सदैव तेरे गुणों की ही माला फेरता हूँ । नाम की माला फेरने और गुणों की माला फेरने में कितना अन्तर है ? जाप नाम का होता है और ध्यान गुणों का होता है । अतः जपमाला नवकारवाली गुणों की गिनता हूँ अर्थात् ध्यान की धारा में तेरे गुणों का ध्यान धरता हूँ । इसीलिये नाम जपने की अपेक्षा गुणों का जाप करने की कक्षा ऊँची है और उसी में सिद्धि है । गुण भक्ति से ही दर्शन शुद्धि की प्राप्ति होती है । यह बात समझाते हुए देवचंद्रजी महाराज कहते हैं कि 'स्वामी गुण ओलखी, स्वामीने ने भजे, दरिशन शुद्धता तेह पामे.. ! अर्थात् स्वामी अरिहंतादि भगवंत के गुणों को पहचानकर, गुणों के दर्शन करता करता जो स्वामी की भक्ति पूजा आदि करता हैं वही भाग्यशाली भक्त जीव ! दर्शन की शुद्धि प्राप्त करता है - सच्चे अर्थ में प्रभु के दर्शन प्राप्त करता है । परमात्मा के गुण दर्शन ही शुद्ध दर्शन है । गुणी के दर्शन और गुणों के दर्शन ये दोनों ही प्रकार के दर्शन हैं और हमें ये दोनों प्रकार के दर्शन करने हैं । प्रथमदर्शी गुणी के दर्शन करने हैं और तत्पश्चात् प्रगति करते करते गहरे अन्दर उतरकर गुणदर्शनकरने हैं, क्यों कि मुख्य साध्य गुण दर्शन है जब कि गुणी के दर्शन साधन हैं और इन दोनों के लिये नमोभाव निमित्त है ।
नमस्कार स्वलक्षी है :
'नमो' पद की आराधना आत्मा को अन्तर्मुखी करनेवाली है । आत्मा नमस्कार के बिना राग-द्वेष की बाह्य प्रवृत्ति में स्व का होश हवास भूलकर बाह्य पदार्थों में निमग्न था, इसने स्व का ही भान न रखा, अतः अब नमस्कार भाव हमें अपना स्वंय का भी भान करवाता है कि हे जीव ! तुझे अपना लक्ष्य सामने रखना है - तूं अपने अन्दर देखना सीख ।
नमस्कार भाव हमें अपने अन्दर देखना सिखाता है, अन्य की ओर नहीं । हम नमस्कार अपने लिये करते हैं या अन्य के लिये ? अपने लिये हमारे नमस्कार से अन्य को लाभ नहीं होने वाला है, लाभ तो हमें ही होगा। जिन्हें नमस्कार करते हैं, उन नमस्करणीय को क्या लाभ होगा ? कुछ भी नहीं, लाभ तो नमस्कार करने वाले को ही होगा । अतः नमस्कार अन्तर्मुखी साधना है जो
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