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________________ गुणी महात्मा हैं, उनके प्रति जो गुणानुराग है उसके कारण स्वयं नमन करने वाला गुणी कहलाता है, क्यों कि किसी के गुण देखने गुण ग्रहण करने का भाव भी गुण है - इस अपेक्षा से नमनकर्ता भी गुणवान है - गुणी है और वह जिन्हे नमन कर रहा है वे नमस्करणीय भी गुणी हैं । उभय पक्ष में गुणसत्ता होने से सादृश्यता आती है । इस प्रकार नमस्कारकर्ता को भी इस बात पर गर्व करना है कि अन्ततः तो मैं भी इन्हीं की श्रेणी में आता हूँ । इन्ही की जाति का हूँ । आज मैं एक गुण वाला हूँ और ये परमेष्ठि गण अनंत गुणमय हैं, तो एक दिन मैं भी इन्हीं के समान अनंत गुणों का धारक बन सकूँगां । - इसके लिये आवश्यकता है गुणानुराग के पोषण व विकास की । और गुणानुराग के लिये नमस्कार की प्रवृत्ति अत्यन्त उपयोगी और आवश्यक है। जिस किसी को भी गुणानुराग विकसित करना हो, उसे 'नमो' नमस्कार की वृत्ति प्रवृत्ति बढ़ानी चाहिये । जिस प्रकार सूर्य के बिना दिन टिक नहीं सकता, सूर्य हो तभी दिन टिक सकता है, उसी प्रकार नमस्कार के बिना गुणानुराग टिक नहीं सकता । नमस्कार वृत्ति नमोभाव हो तभी गुणानुराग टिक सकता है । गुणानुरागीपन ही विनम्र भाव है - विनयी वृत्ति है । मात्र गुणों के प्रति अनुराग जग जाए, गुण प्रिय लगने लग जाएँ फिर तो उन गुणों को स्व जीवन में लाया जाए या नहीं ? देखने में सुन्दर लगे. गुण अच्छे हैं, मात्र इतना कहना ही पर्याप्त नहीं होता । जो अच्छे लगें हैं, जो गुण प्रिय हैं उन्हें तो फिर स्वीकार करना ही चाहिये जीवन में उतारना ही चाहिये प्रश्न है उन्हें आत्मसात् कैसे करे ? कहते हैं कि इसके लिये नमो वृत्ति नमोभाव ही उपयोगी होगा । नमस्कार भाव हमें नमस्करणीय व्यक्ति के अधिक निकट ले जाएगा । हम यह जानने का प्रयत्न करेंगे कि इन्होंने अपने जीवन में ये गुण किस प्रकार विकसाए हैं ? इसी प्रकार हमें भी इन गुणों के विकास की कला सीखने को मिलेगी । गुणानुराग जागृत हो तभी नमस्कार सच्चा - ऐसा समझ लें । पंचपरमेष्ठियों में जो १०८ गुण हैं उन गुणों के प्रति हमारा आकर्षण जागृत होना चाहिये और उन गुणों को बढाने के लिए की ही उपासना करनी चाहिये । गुणो जाप ध्यानादि के होंगे । माला उनके गुणों की ही फेरनी हैं, क्यों कि हमारे अन्दर अरिहंतादि परमेष्ठि व्यक्ति तो आने वाले नहीं हैं उतरने वाले नहीं हैं । वे महापुरूष तो मोक्षगमन कर गए । अब तो हमारे में मात्र उनके गुण ही अवतरित होना - ही 108
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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