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________________ हैं, भले ही हम पामर है परन्तु आत्म स्वरुप से तो दोनों में एकरुपता है, दोनों ही आत्म स्वरुप हैं । द्रव्य से तो एक रुपता सादृश्य है तो फिर गुण की दृष्टि से भी विपरीतता तो न होनी चाहीये । आत्मा के ही गुण आत्मा में आते हैं - जड़ के गुण चेतन में नहीं आते है, न चेतन के गुण जड़ में जाते हैं । यह संक्रमण नहीं होता अतः यह जगत का दृढ नियम है - शाश्वत सिद्धान्त है अतः नमो नमस्कार में रही हुई चुंबकीय शक्ति नमस्करणीय के गुणों को ही आकर्षण करेगी । नमस्कार की चुंबकीय शक्ति मात्र गुणों का ही आकर्षण करती है ऐसी बात नहीं है, बल्कि साथ ही साथ यह अरिहंतादि पंच परमेष्ठि भगवंतो का भी आकर्षण करती है । हमें इनके व्यक्तित्व के प्रति आकर्षित करती है। इस में उभयाकर्षक शक्ति है । यदि हमारा आकर्षण उनके प्रति बढे तो हम अन्य सांसारिक पदार्थों को भूलकर अथवा जगत की अन्य व्यक्तिओं को भूलकर मात्र उनकी ओर ही आकर्षित हों, फिर अन्य ओर जाने या नमन करने की आवश्कता भी न रहे । इसी प्रकार विचार करें तो लगेगा कि इनके गुणों का आकर्षण यदि बढ़े तो इनके सिवाय अन्य किसी के भी गुणों के प्रति हमारा आकर्षण कभी भी नहीं बढेगा । इसकी आवश्यकता भी नहीं रहेगी, क्यों कि ग्राह्य गुण जो भी इस जगत में है वे सभी गुण इन परमेष्ठि भगवंतो में ही हैं अन्यत्र कहीं भी नहीं हैं । अन्यत्र थोड़े - बहुत भी नाम मात्र दिखाई पडेंगे तो भी वे गुण संपूर्ण रुप से विकसित दिखाई नहीं पडेंगे अतः हमे इतने अद्भूत गुणों का खजाना इस नवकार महामंत्र में बिराजमान नमस्करणीय अरिहंतादि पंच परमेष्ठिओं में ही प्राप्त हो . चुका है तो फिर अन्यत्र भटकने की क्या आवश्कता है ? अन्यत्र देखने जानने की भी आवश्यकता क्यों होने लगी ? जरा भी नहीं । जीव को समझाना पड़ेगा कि हे जीव ! जो कुछ भी है वह इस परमेष्ठि नमस्कार स्वरुप नवकार महामंत्र में ही है, इसी में निहित है । नवकार से बाहर कहीं भी कुछ भी नहीं है । जगत में भी कहीं नहीं है, अर्थात् नवकार महामंत्र में गुण और गुणी सभी विद्यमान हैं । - नवकार में गुणानुराग है : राग और राग को अनुसरण करने वाला, राग के पीछे पीछे चलनेवाला अनुराग है, और वह भी गुणानुराग अर्थात् गुणों का अनुसरण करने वाला गुणानुराग कहलाता है । नमस्कारकर्ता गुणी है या नहीं, परन्तु नमस्करणीय जो 107
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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