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बिगाड़े या सुधारें ? धर्मसंकट की स्थिति सामने थी । अविनयी उद्धत्त जीवों को जैसे जैसे समझाते हैं, वैसे वैसे वे जीव क्लेश कषाय की वृत्ति में अधिक दृढ बनते जाते हैं । सत्य ही कहा है कि
* उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये ।
___ पयः पानं भुजंगानां केवल विषवर्धनमेव ।। जिस प्रकार सर्प को दुग्धपान करवाने से विष की ही वृद्धि होती है, उसी प्रकार मूों को उपदेश देने पर क्रोध क्लेश कषाय की वृद्धि ही होती है, उनमें शांति का विकास नहीं होता । इसीलिये महापुरुषों ने समभाव के साथ माध्यस्थ भावना का अवलम्बन लेने का सुझाव दिया है ।
समझदार पिता ने पुत्र के साथ क्लेश - कषाय करना छोड़कर युक्ति से काम लिया । घर के आगे एक मंदिर का निर्माण करवाया । आगे की ओर द्वार बहुत ही छोटा और नीचा रखा, जिससे अन्दर आने वाले को सिर नीचे झुकाकर ही अन्दर आना पड़े । सिर फूटने के भय से भी यदि सिर अनिच्छापूर्वक भी झुका तो वह सम्मुख रहे हुए प्रभुजी को ही नमन करता है - ऐसा भाव आए, अतः द्वार के सम्मुख ही प्रभुजी की प्रतिमा बिराजमान की और पीछे अपना घर रखा, ताकि मंदिर में होकर, प्रभुजी को नमन करके ही घर में प्रवेश हो सके । पिता की इस युक्ति से पुत्र को नमस्कार करवाने का ही भाव था । योजना बन गई।
परन्तु कषाय वृत्ति में दुराग्रह का प्रश्न था । पुत्र भी अपने अभिमान में अडिग था । नमन नहीं करने पर वह दृढ निश्चयी था भले ही पिता ने कुछ भी किया हो । मैं तो हर्गिज नहीं नमूंगा । अविनीत अभिमानी पुत्र सिर न नमाने की वृत्ति में छोटे द्वार में से निकलते समय भी नहीं झुकूँगा अटल अडिग सीधा और अक्कड़ ही रहूँगा - इस विचार के साथ ऐसे ही द्वार में घुसने लगा कि उसका सिर पत्थर से टकराया और वह लोहु-लुहान होकर धरा पर गिरा और गिरने के साथ ही वह मौत के मुँह में चला गया ।
अभिमान तो पतन ही करता है - इस में जरा भी शंका नहीं । इस पुत्र का जीव मृत्युपरान्त तिर्यंच गति में समुद्र में जलचर मछली के रुप में उत्पन्न होता है। जीव अपने अपने कर्मों के अनुसार संबंधित गतिओं में जाते हैं - जन्म लेते हैं, काल निर्गमन करते हैं और मरकर पुनः अन्य गति में जाते हैं।
___ कहते हैं कि समुद्र में सभी प्रकार की मछलियाँ होती है, एक मात्र गोल