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कल्पना करो कि नवकार मंत्र एक विशाल अर्थमय भवन है जिस में स्वामी अरिहंतादि पंचपरमेष्ठि भगवंत रहते हैं । ऐसे भवन में इन स्वामी के पास पहुँचना है तो एक मात्र 'नमो' नमस्कार के प्रवेश द्वार से ही नवकार में प्रवेश हो सकेगा। प्रवेशद्वार सदैव किसी भी मकान भवन के अग्रभाग में होता है - इसी प्रकार 'नमो' को अरिहंतादि के आगे रखा गया है - क्रम में प्रथम रखा हैं ।
'नमो' भवन के आगे के भाग के मुख्य प्रवेश द्वार पर खडे हुए प्रहरी ( watchman) का कार्य करता है । यह प्रहरी 'नमो' हमें निर्देश देता है कि नमन कर झुक कर अन्दर जाओ, अरिहंत - सिद्धादि को पाने जाना है तो नमन कर अर्थात् पहले बाहर से ही नमस्कार करके फिर अन्दर प्रवेश करो । नम्र बनो, नम्रतापूर्वक नमन करो और फिर आगे प्रस्थान करो । इसीलिये 'नमो' शब्द सूचक - प्रेरक बन गया है । यह आत्मा को कदम-कदम पर झुकाने का प्रयत्न करता है । अरिहंतादि पंच परमेष्ठिओं के पास जाते समय कदाचित, नमन करना विस्मृत हो न जाए, कदाचित रह न जाए, अतः आगे बढ़ने से पूर्व ही 'नमो' पद हमें सजग कर देता है । यह हमारा हितैषी भाव मित्र है । यह हमें अविनय, आशातना से बचाने का कार्य करता है । कदम कदम पर हमें जागृत करता है सावधान करता है कि हे चेनत! तू नमन करते ही रहना नमनपूर्वक ही आगे बढना ।
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नमन न करने का परिणाम
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प्राचीन काल की बात है । एक पिता ने अपने पुत्र को कहा- बेटा! नित्य जिनमंदिर में जाकर प्रभु को नमस्कारादि करने चाहिये । यह बहुत ही सुंदर प्रथा है, घर के सभी लोग जाते हैं, प्रभु को नमस्कार करते हैं पर पता नहीं तू क्यों नहीं जाता ? नमस्कार सब प्रकार से हमारे लिये हितकारी है, परन्तु क्या हो ? पूर्व जन्म के घोर कर्मों के कारण पुत्र को यह बात रुचिकर नहीं लगती । वह स्वभाव से भी अविनयी, क्लेश- कषाय की वृत्तिवाला था, और पिता का सामना करने लगा उसने जिद्द पकड़ ली कि मंदिर तो मै कदापि नहीं जाऊँगा, भगवान को न मैं नमस्कार करूँगा, न हाथ जोडूंगा । पुत्र के ऐसे विचार और व्यवहार से पिता बहुत ही दुःखी रहते थे । स्वाभाविक भी है - धर्मी आत्मा को अधर्मी का व्यवहार तनिक भी प्रिय नहीं लगता, परन्तु करें भी तो क्या करें ? संसार
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