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अर्थवाची रखा है जैसे नमस्कार हो अरिहंतों को । नमस्कार हो सिद्धों को । नमस्कार हो आचार्यों को । नमस्कार हो उपाध्यायों को । नमस्कार हो इस लोक में रहे हुए सभी साधु भगवंतो को । इस प्रकार इन पाँचों ही पदों की शब्द रचना है । क्रम रचना की दृष्टि से विचार करें तो स्पष्ट दिखाई पड़ता है कि.... 'नमो शब्द प्रारंभ में रखा है और अरिहंत शब्द बाद में प्रयुक्त हुआ है ।' 'णमो अरिहंताणं' कहा है, परन्तु 'अरिहंताणं णमो' नहीं कहा । यदि हम अरिहंत को महत्त्व देते हैं और इसी प्रकार पंच परमेष्ठि भगवंतो की विशेष महत्ता गिनते हैं, नमस्कार भाव को गौण करते हैं तो नमो शब्द को अन्य में रखें और अरिहंतादि पंचपरमेष्ठियों के नाम पूर्व मे रखें तो नवकार का स्वरुप निम्न प्रकार से होगा -
अरिहंताणं णमो ||१।। सिद्धाणं णमो ॥२॥ आयरियाणं णमों ।।३।। उवज्झायाणं णमो ।।४।। लोए सव्व साहूणं णमो ॥५॥
परन्तु इस प्रकार की नवकार मंत्र की रचना न रखकर ‘णमो' पद आगे रखा गया है और पंच परमेष्ठियों के नाम बाद में रखे गए हैं । इस प्रकार नवकार मंत्र की रचना करके उसका शब्द देह अक्षर देह निम्नानुसार स्थायी रखा गया है
णमो अरिहंताणं ।।१।। णमो सिद्धाणं ।।२।। णमो आयरियाणं ।।३।। णमो उवज्झायाणं ।।४।। णमो लोए सव्व साहूणं ।।५।।
यही रचना स्थायी स्वरुप में प्रस्तुत है और यही सच्चा स्वरुप है । इस में परिवर्तन करने की आवश्यकता ही नहीं रहती । 'ममो' को पीछे रखने की जरुरत नहीं है, नेमो जो आगे है वही सच्चा है। इसमें क्रम का भी रहस्य है यद्यपि नमो शब्द पूर्व में रखने से अरिहंत और सिद्धादि परमेष्ठियों की महत्ता घटती नहीं है, बल्कि बढ़ती ही है क्यों कि नमस्कार किसको किया जाता है तो उत्तर स्पष्ट है कि नमस्कार अरिहंतादि को ही किया जाता है । प्रश्न : 'नमो' शब्द पीछे रखने में अर्थ कहाँ बदल जाता है ? नहीं अर्थ तो नहीं बदलता; अर्थ तो वही रहेगा, परन्तु 'नमो' आगे रखने से नवकार की महत्ताविशेषता बनी रहती है।
'नमो' - नवकार का प्रवेश द्वार है :
कोई भी मकान या घर कितना ही विशाल क्यों न हो, पर उसका प्रवेशद्वार तो अवश्य होता ही है । मकान की अपेक्षा द्वार सदैव छोटा होता है । इस प्रकार
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