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पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपवर्जित (रूपातीत ) इन चारों प्रकारसे सद्ध्यान- धर्मध्यान करना चाहिए। ये ध्यान के आलंबन रूप अर्थात् ध्येयरूप हैं ।
व्याख्या करते हुए कहते हैं कि १) पिण्ड का अर्थ यहाँ पर शरीर है । शरीर का आलंबन लेकर किया जानेवाला ध्यान पिण्डस्थ ध्यान हैं । २) पवित्र पदों का आलंबन लेकर जो ध्यान किया जाता है उसे पदस्थ ध्यान कहते हैं । ३) सर्वचिद्रूप का आलंबन
कर जो ध्यान किया जाता है वह रूपस्थ ध्यान है । ४) तथा निरंजन - निराकाररूप ऐसे रूपरहित सिद्ध भगवंतों का आलंबन लेकर किया जानेवाला ध्यान रूपांतीत ध्यान कहलाता है । स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में इस तरह की व्याख्या करते हुए कहा है— पदस्थं मन्त्रवाक्यस्य पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनम् । रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरंजनम् ॥
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१) पिण्डस्थ ध्यान का स्वरूप
आत्मानं विश्वरूपं त्रिदशगुणगणैरप्यचिन्त्यप्रभावं । तत्पिण्डस्थं प्रणीतं जिनसमयमहाम्भोधिपारं प्रयातैः ॥ ३७/३२
ध्यानयोगी पू. शुभचन्द्रजी ज्ञानार्णव में कहते हैं कि... विश्वरूप समस्त ज्ञेय पदार्थों के आकार जिसमें प्रतिबिम्बित हो रहे हो, ऐसे देवेन्द्रों के समूह से भी जिसका अधिक प्रभाव हो ऐसे “आत्मतत्त्व" का जो चिन्तन = ध्यान किया जाय उसे जैन सिद्धान्तरूपी महासागर के पार पहुँचनेवाले मुनीश्वरों ने पिण्डस्थ ध्यान कहा हैं । यहाँ पिण्डस्थ शब्द की व्युत्पत्तिजनक व्याख्या करते हुए स्पष्ट करते हैं कि... “पिण्डं नाम शरीरं तत्र तिष्ठतीति पिण्डस्थं ध्येयम् ॥” पिण्ड शब्द से इस शरीर को लिया है तथा उस पिण्ड रूप शरीर में रहनेवाली “आत्मा ” स्थित चेतन को पिण्डस्थ कहा है। उसे ही ध्येय बनाकर जो ध्यान किया जाता है वह ध्येयानुरूप पिण्डस्थ ध्यान कहा जाता है ।
स्था-तिष्ठ धातु रहने अर्थ में है । पिण्डरूप इस शरीर - देह में कौन रहता है ? स्वयं शरीर तो जड ही है । जड में जड रहने की बात ही कहाँ है । पिण्डरूप शरीर में रहनेवाली चेतन स्वरूपी चेतनाशक्तिमान आत्मा है। बस, अपनी आत्मा को ही ध्येय बनाकर जो ध्यान किया जाय वह पिण्डस्थ ध्यान है । आत्मा शरीर से सर्वथा भिन्न है, स्वतंत्र है, देह संचालक है, सचेतन है । उसके बिना शरीर सर्वथा जड़ है। निर्जीव है । यहाँ यह भिन्नता—भेदज्ञान उपयोगी है। ध्यान का मुख्य उद्देश्य देह और आत्मा के बीच सर्वथा - संपूर्ण जो भेद है उसे जानना, पहचानना और अनुभव करना है । वर्तमान में दोनों आध्यात्मिक विकास यात्रा
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