SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ही एकदूसरे में सम्मिलित-सत्रिहित रूप से जो अनादि काल से रहते हैं उसमें अभेद बुद्धि बनाकर जीते जीते इस जीव ने अनन्तकाल बिता दिया है । उस अभेदबुद्धि के कारण आज दिन तक जीव ने जड रूप इस शरीर की चिन्ता-सेवादि ज्यादा की, लेकिन इस शरीर को नाशवंत-पौगलिक क्षणिक समझ ही नहीं पाया और जन्मान्तर-भवान्तर में जानेवाली इस आत्मा को स्वतंत्र-अलग अस्तित्वधारक के रूप में पहचान ही नहीं पाया। परिणाम स्वरूप कर्म उपार्जन करता हुआ भवसंसार बढाता ही रहा । अब भेदज्ञान करके ... दोनों को संपूर्ण भिन्न समझकर देहभाव, देहराग और देहाध्यास सब भूलकर देहभाव से ऊपर उठकर स्व आत्मा का ध्यान करें । नय-निक्षेपों और सप्त भंगी से निश्चयादि रूप से आत्मचिन्तन इस प्रकार करें सप्तनयात्मक आत्मस्वरूप चेतन-आत्मा निश्चय नय की अपेक्षा से आदि, मध्य और अवसान (अन्त) रहित है, तथा स्व-पर प्रकाशक है । उपाधि से रहित ज्ञान-स्वरूप और निश्चय प्राणों से जीनेवाली है तथापि वह अशुद्ध निश्चय नय से अनादि कालीन संचित कर्म के वश होकर द्रव्य प्राण तथा भाव प्राणों से जीनेवाला होने से जीव कहा जाता है। शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से परिपूर्ण निर्मल-स्वच्छ दो उपयोग हैं, तन्मय जीव है, तथापि अशुद्ध नय से जीव को क्षायोपशमिक ज्ञान-दर्शन प्राप्त होता है। व्यवहार नय से मूर्त कर्माधीन होने के कारण जीव वर्ण, गंध, रस, स्पर्श तथा रूप से मूर्तिमान दिख पडता है। तथापि निश्चय नय से अमूर्त, इन्द्रियों से अगोचर, और शुद्ध स्वभाव को धारण करनेवाला है । निश्चय नय से आत्मा क्रियारहित, सर्व प्रकार की उपाधियों से रहित तथा ज्ञानस्वरूप है । तथापि मन-वचन-कायिक व्यापार के करनेवाली और कर्म के ही वश से शुभाशुभ कर्मों का कर्ता है। ___ आत्मा निश्चय नय से स्वभाव तथा लोकाकाश प्रमाण असंख्य आत्मप्रदेशों को धारण करनेवाली है, क्योंकि जब केवलज्ञान दशा में आयुष्य कर्म के दलिक कम रहते हैं और वेदनीय कर्म के दलिक अधिक रहते हैं, तब वह केवलज्ञानी महात्मा वेदनीय कर्म के अधिक दलिकों को समाप्त करने के लिए, अर्थात् वेदनीय कर्म को आयु कर्म के समान-समकक्ष करने के लिए अपने असंख्य आत्मप्रदेशों को अपनी आत्मीक शक्ति से तमाम लोकाकाश में फैला देता है और सिर्फ ८ समय में १४ राजलोक के तमाम परमाणुओं का संस्पर्श करके पुनःआत्मप्रदेशों को शरीरस्थ कर लेता है । इसे केवली समुद्घात कहते ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास" १०५९
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy