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________________ ग्रन्थकार ने श्लोक में “मुख्यवृत्ति” शब्द का प्रयोग किया है । मतलब यह है कि....७ वे अप्रमत्त गुणस्थान पर धर्मध्यान तो अनिवार्य रूप से होता ही होता है । अप्रमत्तभाव और धर्मध्यान के अन्योन्य पूरक संबंध हैं । ये दोनों एक दूसरे के बिना रह नहीं सकते हैं। इसलिए धर्मध्यान के साथ अप्रमत्त भाव और अप्रमत्त भाव के साथ धर्मध्यान ये अन्योन्यपूरक संबंध हैं । ये दोनों एक दूसरे के बिना रह नहीं सकते हैं । इसलिए धर्मध्यान के साथ अप्रमत्तभाव, और अप्रमत्तभाव के साथ... धर्मध्यान भी अवश्य ही रहता है। धर्मध्यान मुख्यवृत्ति से रहता है तथा रूपातीतादि रूप से शुक्लध्यान भी अंशमात्र संभव है। वैसे शुक्लध्यान की बहुलता ८ वे गुणस्थान से आगे ज्यादा है फिर भी अप्रमत्त ७ वे गुणस्थान पर भी आंशिकरूप से रहता है। धर्मध्यान में-पिण्डस्थादि ४ प्रकार पिंडस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम्। . इत्यन्यच्चापि सद्ध्यानं ते ध्यायन्ति चतुर्विधम् ।। १३७ ।। . सद्-(शुभ) ध्यानरूप जो धर्मध्यान है उसके ४ प्रकार बताए हैं धर्म ध्यान में पिंडस्थादि ४ प्रकार पिंडस्थ पदस्थ रुपस्थ रुपातीत ध्याता अर्थात जो स्वयं ध्यान करनेवाला है, ध्येय अर्थात ध्यान करने योग्य आलंबन. ध्यान अर्थात् ध्याता और ध्येय को साथ में जोडनेवाली ध्याता की तरफ से होती हुई सजातीय प्रवाहवाली अखंड साधना (क्रिया) अर्थात् जो आलंबनरूप ध्येय है उसमें या उस तरफ अंतर्दृष्टि करना । उस लक्ष्य के सिवाय मन अन्य कुछ भी चिन्तन न करते हए एकरस होकर सतत उसी धारा का चिन्तन करता रहे, उसकी एक ही प्रकार की एक ही वृत्ति का अखण्डरूप से प्रवाह चलता रहे उसे ध्यान कहते हैं । १) पिण्डस्थ २) पदस्थ, ३)) रूपस्थ और ४) रूपातीत इन चार प्रकार के ध्येय अर्थात् ध्यान करने योग्य आलंबन हैं। इन विषयों को लेकर ध्यान किया जाय अतःवे पिण्डस्थादि प्रकार के ध्यान कहलाएंगे। योगशास्त्र में यही कहा है पिण्डस्थं च पदस्थं च, रूपस्थं रूपवर्जितम्। चतुर्धा ध्येयमाम्नातं ध्यानस्यालम्बनं बुधैः ।।७।। ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास" १०५७
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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