SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपार्जन कर सकते हैं । अर्थात् निश्चय और व्यवहार उभय से भ्रष्ट हो जाते हैं । इसलिए छट्टे गुणस्थान के स्वामी प्रमत्त संयत को दोनों तरफ का संपूर्ण ध्यान रखना ही उचित है। निरालम्बन ध्यान में प्रवेश ___ अप्रमत्त सातवे गुणस्थान के सोपान पर आरूढ अप्रमत्त ध्यान साधक प्रमादादि भावों का सर्वथा त्याग कर... निरालंबन ध्यान में प्रवेश करता है । निरालम्बन ध्यान में प्रवेश करनेवाले योगी ३ प्रकार के होते हैं । १) प्रारम्भक, २) तनिष्ठ ३) निष्पन्नयोग। १) प्रारम्भक निरालम्बन ध्यानी- जो साधक नैसर्गिक या सांसर्गिक विरति-व्रत-नियमवाली आत्मपरिणति को प्राप्त करके बंदर के समान चंचल चपल मन को निरुद्ध करने के लिए किसी पर्वत की गुफा आदि एकान्त स्थान में बैठकर तथा निरन्तर नासिकाग्रभाग पर दृष्टि लगाकर निष्पकम्प तथा वीरासन आदि में विधिपूर्वक समाधि का प्रारम्भ करता है उसे प्रारंभक योगी कहते हैं। २) तन्निष्ठ निरालम्बन योगी-जो साधक प्राणवायु, आसन-इन्द्रिय, मन, क्षुधा, पिपासा, तथा निद्रा, इन सबको वश में करके, सर्व प्राणिमात्र पर प्रमोद भावना, कारुण्य भावना तथा मैत्री भावना को धारण करके अन्तर्जल्पपने ध्यानाधिष्ठित चेष्टा से तत्त्वस्वरूप का चिन्तन करते हैं उन्हें तनिष्ठ योगी कहते हैं। ३) निष्पन्न निरालम्बन योगी-जिन योगियों के हृदय में बाह्य तथा आन्तरिक जल्प कल्लोल-(विकल्प) उपशमता को प्राप्त हो चुके हैं अर्थात् शान्त हो गए हैं, अर्थात् अब चित्त में संकल्प-विकल्प उत्पन्न ही नहीं होते हैं और स्वच्छ विद्यारूप विकसित कमलिनि से सुशोभित मन रूपी सरोवर के अन्दर निर्लेपता से आत्मारूपी हंस सदा काल स्वात्मानुभवरूप अमृत का पान करता है उन्हें निष्पन्न योगी कहते हैं। धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान के गुणस्थान धर्मध्यानं भवत्यत्र, मुख्यवृत्त्या जिनोदितम्। रूपातीततया शुक्लमपि स्यादंशमात्रतः ।। ३५ ।। जिस तरह अशुभ–आर्त-रौद्रध्यान के गुणस्थान होते हैं वैसे ही शुभ धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान के भी गुणस्थान दर्शाए हैं । यहाँ ७ वे अप्रमत्त गुणस्थान पर मुख्यवृत्ति से धर्मध्यान होता है । छठे प्रमत्त गुणस्थान या ४ थे, ५ वे गुणस्थान पर भी धर्मध्यान हो सकता है लेकिन वह व्यवहार से गौणरूप से होता है। इसीलिए गुणस्थान क्रमारोह १०५६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy