SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पू. ध्यानस्थ योगी कलिकाल सर्वज्ञश्री हेमचन्द्राचार्यजी की अभिलाषा वने पद्मासनासीनं, क्रोडस्थितमृगार्भकम्। कदा घास्यन्ति वक्त्रे मां जरन्तो मृगयूथपाः ॥१॥ शत्रौ-मित्रे तृणे स्त्रैणे, स्वर्णेऽश्मनि मणौ मृदि। मोक्षे भवे भविष्यामि निर्विशेषमतिः कदा? ॥२॥ पद्मासन लगाकर जंगल में बैठे हुए तथा जिसकी गोद में हिरन का बच्चा बैठा हो, ऐसी दशा में मुझे वृद्ध मृग आकर कब सूबेंगे? अर्थात् ऐसी प्रौढ गहरी समाधि की दशा को मैं कब प्राप्त करूँगा? ऐसी समाधि की दशा में वनचर पशु भी शान्त होकर मेरे मुख या शरीर को कब सूपंगे? शत्रु-मित्र, तृण, स्त्री समूह, सुवर्ण-पाषाण, मणिरत्न, मिट्टि, तथा मोक्ष और संसार इन सब में समान दृष्टिवाला मैं कब बनूँगा? ऐसी समाधि की अवस्था को मैं कब प्राप्त करूँगा? जिसमें संसार-मोक्ष दोनों में समभाव से रहूँ, मेरी दोनों में समान बुद्धि बन जाय जिससे किसको छोडना और किसको प्राप्त करना ऐसा कोई भेद ही न रहे। इस तरह अनेक ध्यानस्थ योगी महापुरुषों ने अपने मनोरथ-भाव व्यक्त किये हैं। उनकी उत्कृष्ट ध्यान साधना में वैसी भावना व्यक्त की है। कैसी सुंदर उनकी अप्रमत्त ध्यानावस्था थी? कितनी ऊँची उनकी आगे की अवस्था प्राप्त करने की तैयारी थी? इस तरह परम संवेग भाव को प्राप्त करके ६ढे प्रमत्त गुणस्थान में रहनेवाले विवेकी पुरुषों को शुद्ध परमात्म तत्त्व संवित्ति के मनोरथ करने चाहिए। अभिलाषाएँ बढानी चाहिए । षडावश्यक आदि की आचरणा के व्यवहार का त्याग नहीं करना चाहिए। योगिनः समतामेतां प्राप्य कल्पलतामिव । सदाचारमयीमस्यां वृत्तिमातन्वतां बहिः • ये तु योगग्रहप्रस्ताः सदाचारपराङ्मुखाः। एवं तेषां न योगोऽपि, न लोकोऽपि जडात्मनाम् ॥२॥ शास्त्रकार महर्षि फरमाते हैं कि- योगी पुरुष को चाहिए कि... कल्पलता के समान समता को प्राप्त करके उस सदाचारवाली समता में बाह्य प्रवृत्ति भी रखे । जो मनुष्य केवल योग ध्यान के ही कदाग्रह से ग्रस्त होकर आवश्यक क्रियानुष्ठान का परित्याग कर बैठते हैं, छोड देते हैं वे न तो योग को ही प्राप्त कर सकते हैं और न ही व्यवहारजन्य पुण्य ध्यान साधना से आध्यात्मिक विकास" ॥१ ॥ १०५५
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy