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________________ है ऐसा अप्रमत्त साधक व्रत, महाव्रत तथा शील-सदाचार - शुद्धाचार से युक्त तथा ज्ञान एवं ध्यान के ही धनवाला, मौन साधना का साधक मौनी तथा मोहनीय कर्म का उपशम एवं क्षय करने के लिए उद्यत ऐसा श्रेष्ठ मुनि, दर्शन सप्तक के बिना की तद्व्यतिरिक्त (भिन्न) अर्थात् दर्शन सप्तक रहित ऐसी अन्य २१ प्रकृतियों का उपशमन अथवा क्षय करने के लिए अत्यन्त श्रेष्ठतम ऐसी ध्यान की साधना को साधने के लिए प्रारम्भ करता है । I इससे एक बात स्पष्ट होती है कि प्रमाद भाव को छोडने के पश्चात् ही ध्यानसाधना का प्रारम्भ संभव है । उसके बिना कदापि सम्भव ही नहीं है। ध्यान ऐसे ही थोडी ही प्रारम्भ हो जाता है? इतना सरल और आसान खेल जैसा नहीं है । इसलिए ग्रन्थकार ने “ नष्टाशेष प्रमाद” इन शब्दों का प्रयोग किया है । “अशेष” “ अर्थात् न शेष इति अशेष” – अर्थात् बिल्कुल अंशमात्र भी जिसने प्रमाद को अवशिष्ट न रखा हो अर्थात् समूल सर्वांश प्रमाद का सर्वथा सम्पूर्ण नाश कर दिया हो ऐसा प्रमाद का त्यागी अप्रमत्त योगी ही ध्यान करने के लिए लायक पात्र बन सकता है । वह साधक और कैसा है ? इसके लिए आगे और भी विशेषणों का प्रयोग किया है। इससे ध्यानसाधना का प्रारम्भ करनेवाला, या ध्यान साधना में प्रवेश करनेवाला साधक कैसा पात्र होना चाहिए ? अधिकारी कैसा होना चाहिए ? उसका स्वरूप लक्षणों से दर्शाया है- १) सर्वप्रथम तो प्रमादत्यागी फिर २) व्रत - महाव्रतधारक, ३) शीलगुण धारक, शीयल - ब्रह्मचर्य की पालना नौवाड पूर्वक शुद्धतम पालनेवाला अर्थात् १८००० शीलांग रथ धारक... ब्रह्मचर्य शीयल के इतने भंग होते हैं अतः इतने प्रकार से, इतने सब तरीकों से शीयल - ब्रह्मचर्य . का धारक शीलवती हो । तथा ४) ज्ञानधारक ज्ञानी हो, सिद्धान्तों का सही सम्यग् ज्ञान प्राप्त किया हुआ ज्ञानी हो, और ५) ध्यान करने की वृत्ति तीव्राभिलाषावाला साधक हो । अर्थात् ऐसे कह सकते हैं कि.... ज्ञान और ध्यान ही जिसका धन हो । जैसे कोई व्यापारी धनलक्षी होता है उसके लक्ष में एकमात्र धन ही धन दिखाई देता है । उद्देश्य ही वही है । ठीक वैसे ही ऐसा साधक जिसका ज्ञान और ध्यान का ही एक मात्र लक्ष्य बना हुआ है ऐसा ज्ञानी - ध्यानी ही ध्यान कर सकता है । तथा दूसरी तरफ वह मौनव्रतधारी भी होना ही चाहिए I यह ध्यान साधना भी साधन है । साध्य नहीं है । साध्य तो आगे के शब्दों में स्पष्ट किया है— “शमनक्षपणोन्मुखः " कर्मों का क्षय या उपशम जो भी करना हो वैसा करने का लक्ष्य रखनेवाला हो । बात भी सही है कि आखिर इतना ध्यान करके करना क्या है ? किस और कैसे फल की आशा-अपेक्षा है ? तो साफ कहते हैं कि एकमात्र ९७६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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