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• अध्याय १५
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ध्यान साधना से “आध्यात्मिक विकास"|
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नष्टाशेषप्रमादात्मा, व्रतशीलगुणान्वितः । ज्ञान-ध्यान-धनो-मौनी, शमनक्षषणोन्मुखः ॥३३॥ सप्तकोत्तर मोहस्य प्रशमाय क्षयाय बा। .
सध्यानसाधनारम्भं, कुरुते मुनिपुंगवः ॥३४ ।। - गत व्याख्यान तक प्रमादजन्य स्थिति एवं अप्रमत्त भाव की प्राप्ति की विचारणा करते आए हैं। अब आगे अप्रमत्त भाव के साथ ध्यान साधना कैसे और कैसी करनी इसकी मीमांसा प्रस्तुत प्रकरण में करनी है । याद रखिए कि, प्रमत्त भाव से ऊपर उठने के ‘लिए अप्रमत्त भाव साध्यरूप था। अब अप्रमत्त भाव को साधन बनाकर ध्यान को साध्य बनाया जाय यही साधना की प्रक्रिया है। ध्यान करने योग्य कार्य = कर्तव्य है। अप्रमत्तभाव प्राप्त करके भी यदि ध्यान नहीं करेंगे तो क्या करेंगे? या तो फिर अप्रमत्तभाव टिकेगा नहीं, क्योंकि अप्रमत्तभाव साधन है । अकेले उससे काम नहीं होगा। अप्रमत्तभाव अभावात्मक स्थितिवाला नहीं है । यह तो सद्भावात्मक स्थितिवाला है। इसमें कुछ भी नहीं करना ऐसी भी बात नहीं है । कुछ करना ही है, और वह है ध्यान । यदि कुछ भी नहीं कर पाएंगे तो निश्चित समझिए कि अप्रमत्तभाव टिकेगा नहीं । अतः ध्यान साध्य है।
अप्रमत्तभाव का सीधा तात्पर्य है कि प्रमादभाव में जो जो भी किया जाता था उनका अभाव यहाँ जरूर करना है । उनका आचरण हर हालत में नहीं ही करना है । मद, विषय कषाय, निद्रा, और विकथा आदि सब प्रकार के प्रमादों का आचरण तो अंशमात्र भी नहीं ही करना है। लेकिन अब इनके त्याग के बाद अन्दर की प्रक्रिया का प्रारंभ होता है । कर्मबंधकारक बाह्यनिमित्त रूप प्रमादाधारभूत क्रियाओं का त्याग हुआ है और कर्मक्षयकारक-निर्जराकारक प्रक्रिया का प्रारंभ करना है । उसके लिए गुणस्थान क्रमारोह कार महर्षी श्री रत्नशेखर सूरि महाराज ३३ वे तथा ३४ वे श्लोक में कहते हैं कि जिसका संपूर्ण प्रमाद नष्ट हो चुका है अर्थात् सब प्रकार के प्रमादस्थानों का सेवन करना जिसने सर्वथा छोड ही दिया है और वह भी मन, वचन तथा काया के तीनों माध्यमों से छोड़ दिया ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास"
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