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________________ कर्मक्षय-निर्जरा करने का ही लक्ष्य है । अतः कर्मक्षय यहाँ साध्य है और ध्यानादि साधन है। इस तरह दोनों में जन्य-जनक, कार्य-कारण भाव का संबंध है । अतः ध्यान जनक है और कारण भी है, तथा कर्मक्षय जन्य तथा कार्य है । साध्य है। बस, इन लक्षणों का विस्तार से अर्थ करके उपयोगिता समझनी चाहिए। जिससे ध्यान साधना में प्रवेश करनेवाला साधक कैसा होना चाहिए? यहाँ साधक के लक्षण दर्शाए हैं । तथा लक्षणों के आधार पर साधक की योग्यता पात्रता बताई है । जैसे अष्टांग योग की प्रक्रिया में भी प्रवेशद्वार पर यम-नियम की उपयोगिता बताई है ठीक वैसे ही यहाँ पर व्रत-शील की आवश्यकता बताई है। बात फिर वहीं की वहीं है। अतः ध्यान में प्रवेश करने के लिए यम-नियम या व्रत-शील की पूर्ण आवश्यकता अनिवार्यता बताई है। बिना व्रत-शील, या यम-नियम के कोई भी जीव यदि आगे विकास साधता भी है तो वह अपरिपक्व गिना जाएगा । जैसे जिस विद्यार्थी ने ५,६,७ वी कक्षा का अभ्यास नहीं किया है और उसे यदि सीधे १० वी कक्षा में बैठा दिया जाय तो कैसी अनधिकार चेष्टा कहलाएगी? ठीक उसी तरह यहाँ भी यम-नियम से जो तैयार नहीं हुआ है, परिपक्व नहीं हुआ है ऐसे को यदि सीधे ध्यान की भूमिका पर चढा दिया जाय तो वह अपरिपक्वावस्था के दुःख का अनुभव करेगा। इसलिए यह नियम व्रत-शील का आचरण साधक में आना ही चाहिए। इसी से उसमें परिपक्वता आएगी। क्रमशः क्रमिक विकास ही राजमार्ग है। आसनजन्य स्थिरता या प्रमादरहित स्थिरता? जैसे अष्टांग योग में तीसरा सोपान आसन का है। आसन स्थिरता के लिए उपयोगी-सहयोगी है। यह स्थिरता बाह्य और आभ्यन्तर उभय कक्षा की है। बाह्य स्थिरता कायिक शारीरिक है। इसलिए शरीर के जो मख्य अंग मस्तिष्क, हाथ-पैरादि हैं उनको मरोडकर भी स्थिर रूप से बैठना आदि आसन कहलाते हैं । भिन्न भिन्न अंगों को भिन्न-भिन्न तरीकों से मोडने पर, भिन्न-भिन्न प्रकार के आसन बनते हैं । उसका नामकरण पद्मासन, वीरासन, वज्रासन, सिद्धासन आदि अनेक रूप से किया है। ऐसे ८४ प्रकार के अलग-अलग अनेक आसन हैं । बाह्य स्थिरता को साधने के लिए यह भी सहायक साधन लेकिन आभ्यन्तर कक्षा की स्थिरता तो मनोजन्य है । मन को साधने से ही आभ्यन्तर स्थिरता आएगी। इसके लिए मात्र अंगों के आसन पर्याप्त नहीं सिद्ध होते हैं । अतः आन्तर ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास" ९७७
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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