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________________ के लिए ज्यादा उपयोगी -सहयोगी सिद्ध होता है। अतः जिस किसी को भी परमात्मा का ध्यान करना हो उसे आलंबन का विरोध नहीं करना चाहिए । प्रतिमा परमात्मा की ही प्रतिकृति - आकृति विशेष है । अतः उसे स्वीकारने में तनिक भी हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए । और साथ ही उनके प्रति सद्भाव, अहोभाव, बहुमानभाव जगानेवाली दर्शन - पूजा की किसी भी प्रकार की क्रिया विधि रीति-पद्धति के प्रति अभाव- 3 - अरुचि - द्वेषादिभाव होना ही नहीं चाहिए। जैसे हमारी छबि- फोटो के प्रति हम अभेद संबंध रखते हैं वैसे ही परमात्मा की प्रतिमा के साथ अभेदभाव संबंध रखकर उसी प्रकार का व्यवहार प्रतिमा के प्रति करना चाहिए जैसा कि आप परमात्मा के प्रति करते हैं । इसलिए प्रतिमा को अब प्रतिमा मात्र, या पाषाण पत्थर की प्रतिमा - मूर्ति मात्र न कहते हुए परमात्मा कह कर व्यवहार करना चाहिए । जैसा कि १०० रु. की नोट को कागज या पिता के फोटु को कागज मात्र न कहकर हम पिताजी - रुपए कह कर व्यवहार कहते हैं उसी तरह प्रतिमा को परमात्मा कहना ही उचित है । जो कि हमारे भावों की जनक उद्योतक है। इस तरह स्थापना- आलंबन लेकर साधक को आगे बढना चाहिए । चित्त की एकाग्रता शीघ्र करके स्थिरता लाकर ध्यान में तल्लीन होकर प्रगति करनी चाहिए । 1 I समूचे लोक में ऐसी तो लाखों करोडों शाश्वत प्रतिमाए हैं। स्वर्गादि में भी अनेकों प्रतिमाए हैं । हमारे इस तिर्छा लोक के मनुष्य क्षेत्र तथा मनुष्य बाह्य क्षेत्र में भी सर्वत्र लाखों-करोडों जिन मूर्तियाँ करोडों वर्षों से कितनी उपकारक रही हैं। अनेकात्माओं के सम्यग् दर्शन के प्रगटीकरण में, निर्मलीकरण में अनन्तगुनी उपकारक बनी हैं । द्रव्यालंबन में जिनेश्वर परमात्मा का जीव स्वयं ही है। जो अस्तित्वधारक है । भूतकालीन, वर्तमानकालीन तथा भविष्यकालीन सभी स्वरूप में है । भूतकालीन अवस्था में आज भावि चौबीशी में होनेवाले सभी तीर्थंकर परमात्माओं के जीव स्वर्ग-नरक क्षेत्र मौजूद हैं। जैसे श्रेणिक राजा का जीव वर्तमान में नरकगति में उपस्थित है जो वहाँ का यह वर्तमान जन्म पूर्ण करके अगले जन्म में सीधे यहाँ मनुष्यगति में जन्म लेकर पद्मनाभस्वामी तीर्थंकर भगवान बनेंगे। बाद में मोक्ष में जाएंगे। वर्तमान काल में जो महाविदेह के पाँच क्षेत्रों में कुल २० तीर्थंकर भगवान विचर रहे हैं। उनकी गणना भी द्रव्य-जीव रूप में होती है तथा भविष्य काल में जो तीर्थंकर - भगवान मुक्त हो जाते हैं उनका जीव मोक्ष में चला जाता है, वहाँ सिद्ध बन जाता है । अतः मुक्तावस्था में भी उस मुक्तात्मा सिद्धात्मा का द्रव्य रूप से अस्तित्व तो रहता ही है । अतः द्रव्य रूप से जिनेश्वर का जीव श्रेष्ठ उपकारक आलंबन है । आध्यात्मिक विकास यात्रा १०४८
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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