SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावजिन-समवसरण में जो बिराजमान होते हैं, धर्मदेशना फरमाते हैं, जिनके तीर्थंकर नामकर्म का रसोदय हो जाता है, वीतरागी सर्वज्ञ-सर्वदशी बनकर अपने-अतिशय प्रातिहार्यों तथा गुणों से जो सुशोभित होते रहते हैं ऐसे साक्षात् विद्यमान परमात्मा का आलंबन कितना उपयोगी एवं उपकारक सिद्ध होता है। समवसरण की धर्मसभा में उपस्थित बारह पर्षदा के समस्त जीवों के लिए परमात्मा साक्षात् उपकारक सिद्ध होते हैं। क्षेत्र की दृष्टि से परमात्मा एवं प्रतिमारूप से मंदिर में विराजमान होकर अनेक भूमि भागों पर संस्थापित है। इस तरह जिनालय-जिनप्रासादों से सारी धरती नंदनवन बनी हुई है। सुशोभित है। तथा काल निक्षेप की दृष्टि से प्रभु प्रतिमा तीनों काल में रहती है। इतना ही नहीं महाविदेह जैसे क्षेत्र धाम में सदा प्रवर्तमान चौथे आरे के काल में सदा ही तीर्थंकर भगवान सदेह से विद्यमान रहते हैं। अतः चारों निक्षेपादि की दृष्टि से आलंबन-स्वीकार करना हितकारी है। इस तरह का सालंबन ध्यान चित्त को एकाग्र करने में तथा बिना विलंब से ध्यान लगाने में ज्यादा सहायक एवं उपयोगी रहता है । यदि कोई सालंबन ध्यान को सर्वथा विरोध करके सीधे ही निरालंबन ध्यान की बात करता है उसके सामने शास्त्रकार महर्षि लालबत्ती धरते हुए साफ लिखते हैं कि यावटामादसंयुक्तस्तावत्तस्य न तिष्ठति। धर्मध्यानं निरालम्बमित्यूचुर्जिनभास्कराः ।। २९ ।। जब तक जीव प्रमादग्रस्त रहता है । प्रमाद के सर्व भेद-प्रभेदों का जो वर्णन पहले कर आए हैं उनसे ग्रस्त रहनेवाले प्रमादी के लिए निरालम्बन धर्मध्यान संभव ही नहीं है ऐसा जिनेश्वर प्रभु फरमाते हैं । इसमें यह स्पष्ट होता है कि प्रमादभाव की बहुलता-प्रधानता में सालम्बन ध्यान की संभावना अच्छी लगती है । परन्तु आज्ञा विचय आदि अवलंबनों सहित मध्यम धर्मध्यान की भी गौणता रहती है। किन्तु मुख्यता नहीं रहती। इसलिए प्रमत्त नामक छठे गुणस्थानक तक के अधिकारी-प्रमादी को धर्मध्यान की प्राप्ति संभव नहीं है। जो साधक सिद्धान्तवचन पर ध्यान न देकर प्रमत्तावस्था में भी आवश्यकादि क्रिया विधिविधानों का परित्याग करके निरालंबन ध्यान की बडी बातें करता है वह उपहास के पात्र हैं । उसमें तथ्य समझना बडा मुश्किल है । इसलिए जब तक प्रमत्तावस्था है तब तक सालंबनध्यान ही कर्तव्य है और साथ ही आवश्यकादि की व्यवहार चारित्र की समस्त क्रिया-विधियाँ भी सुविहित परंपरानुसार सुव्यवस्थित रूप से करे । करता रहे । तथा जब अप्रमत्तावस्था प्राप्त हो जाय तब निरालंबन ध्यान की स्थिरता बढाते-बढाते ध्यान साधना से “आध्यात्मिक विकास" १०४९
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy