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नाम
- आकृती (आकार - स्थापना) द्रव्य से तथा भाव से सब रूपसे समस्त जगत् को पावन करते हुए तथा क्षेत्र और काल से सर्वत्र अरिहंत परमात्मा की मैं सम्यग् उपासना
करता हूँ ।
नाम जिणा जिणनामा, ठवणजिणा पुण जिणिदपडिमाओ । दव्वजिणा जिणजीवा भावजिणा समवसरणत्था ॥ ५१ ॥
जिनेश्वर परमात्मा का नाम - यह नाम जिन का स्वरूप है। जिनेश्वर की प्रतिमा - मूर्तिरूप में स्थापना - आकार विशेष में स्थापना यह स्थापना जिन का स्वरूप है । द्रव्य से तो परमात्मा की जो मूलभूत आत्मा है वह चेतन द्रव्य द्रव्य जिन (जिनेश्वर) के रूप में है । तथा जब चारों घनाघाती कर्मों का क्षय हो जाता है और वीतरागता केवलज्ञान - दर्शनादि की प्राप्ति हो जाती है और देवकृत समवसरण में बिराजमान होकर तीर्थंकर नामकर्म का रसोदय होने पर देशना देते हो वैसे परमात्मा भाव जिन कहलाते हैं । इस तरह चारों स्वरूप में परमात्मा ध्येय रूप है । अतः चारों स्वरूप में नामांदि का आलंबन ग्राह्य है । इस तरह सालंबन ध्यान में नामादि सभी ग्राह्य हैं ।
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जिनेश्वर परमात्मा के नाम से भी अनन्तात्माएं तैर गई हैं। अनन्त तीर्थंकर परमात्मा हुए हैं । व्यक्तिगत रूप से भी एक एक तीर्थंकर प्रभु का नाम कितने लम्बे काल तक चला है ? वर्षों तक चलनेवाले नाम से अनेकों साधकों ने उनके नाम का आलम्बन लेकर जाप - स्मरणादि किया है । और भले ही काल की करवट में छिप जाने के पश्चात् पदरूपः से नवकार महामंत्र के " नमो अरिहंताणं" पद में सन्निहित हो जाता है। अब व्यक्तिगत नाम भले ही न रहे लेकिन पद शाश्वत रहता है। " नमो अरिहंताणं” पद से वे ही अरिहंत वाच्य
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बनते है । अरिहंत अरुहंत, अर्हन् आदि से वे ही वाच्य बनते हैं । अतः ऐसे मंत्रात्मक एक पद का उच्चार करने मात्र से भी अनन्त अरिहंतों को नमस्कार होता है । नामालंबन इस तरह होता है ।
स्थापना - आलंबन से परमात्मा जैसे वीतरागी, ध्यानी है वैसी उनकी प्रतिमा-प्रतिकृति बनाई जाती है। ऐसी मूर्तियाँ जिस किसी भी द्रव्य की बने वह शुद्ध होनी चाहिए । शुद्ध धातु, शुद्ध काष्ठादि शुद्ध पाषाण की बनती है। उस प्रकार के पद्मासनस्थ, ध्यानस्थ, कायोत्सर्गस्थ जिन बिंब का आलंबन लेकर साधक - ध्याता... उस प्रतिमा के आलंबन से पूर्ण परमात्मा का ध्यान कर सकता है। मन को बाहर न भटकने देने के लिए, और स्थिर करने के लिए यही श्रेष्ठ आलंबन है । इसके लिए पूर्व भूमिका के रूप में दर्शन-पूजन-वंदन - कीर्तन - स्मरणादि पूज्यभाव - अहोभाव - सद्भाव बढाने ध्यान साधना से " आध्यात्मिक विकास"
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