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उस काल में भी उसके वर्तमान काल निमित्त भी राग-द्वेष करने की कोई आवश्यकता ही नहीं रहती है। क्योंकि ध्याता ने अपनी दृष्टि को व्यापक करके चारों तरफ काल-क्षेत्र में फैला दी है । ध्याता संसार का परिवर्तनशील स्वरूप तथा स्वभाव अच्छी तरह समझ जाता है । प्रत्येक पदार्थ का गुणपर्यायात्मक स्वरूप उत्पाद, व्यय तथा धौव्य स्वभाववाले अर्थ में समझ जाता है । इतने उत्पाद-व्यय होते हुए, तथा पर्याय बदलते हुए भी पदार्थ मात्र ध्रुव-नित्य रहते हैं। समूल नष्ट नहीं होते हैं। इस तरह पदार्थ नित्यानित्य स्वभावी है। जो देश-क्षेत्र-काल-भाव से परिवर्तनशील है। अतः ऐसे में क्या राग-द्वेष करना? इस तरह किसी भी वस्तु या व्यक्ति के लिए तत्-तत् काल में संयोग-वियोग मात्र हो उतने से क्या राग-द्वेष करना? क्यों करना? ऐसे समय में दृष्टि को विस्तारित करके उसकी पर्यायों आदि का पुनः विचार कर लेने से वस्तु के प्रति राग-द्वेष नहीं होगा। वस्तु के नित्य स्वरूप में या वियोगवाले अनित्यस्वरूप के विषय में द्रव्य-पर्याय की अपेक्षा से मन की विक्षिप्त स्थिति नहीं रहेगी। इसी के साथ आत्मा भी अपने अज्ञान के सिवाय क्षेत्र काल के बंधन में नहीं आ सकती है जो अपना अज्ञान दूर कर लिया जाय तो आत्मा को किसी भी द्रव्य-क्षेत्र-काल का बंधन नहीं लगेगा। इस तरह संस्थान विचय ध्यान से अनेक लाभ होते हैं।
सालंबन और निरालंबन ध्यान
ध्याता ध्यानावस्था में किसी का आलंबन लेकर ध्यान में आगे बढता है उस समय उसके लिए आलंबन बहुत ही उपयोगी-सहयोगी बनता है । देवाधिदेव-परमात्मा का, सर्वश्रेष्ठ आलंबन लेकर ध्यान में प्रगति करना यह सालंबन ध्यान कहलाता है। ऐसे सालंबन ध्यान में साधक प्रभु के मंदिर में जिन प्रासाद-जिनालय में जिन प्रतिमा समक्ष बैठता है और प्रतिमा में जो परमात्मभाव की बुद्धि-धारणा और भावना बनी हुई है उसके आधार पर प्रतिमा के आलंबन से परमात्मा के संपूर्ण स्वरूप को अपने ध्यान का विषय बनाता है। ऐसे सालंबन ध्यान से चित्त की एकाग्रता साधने में तथा ध्यान में प्रगति करने में विलंब नहीं होता है । दूसरी तरफ परमात्मा जो नाम-स्थापना-द्रव्य-क्षेत्र कालभाव सर्व रूप से है उनकी उपासना करनी है। सकलार्हत् स्तोत्र में हेमचन्द्राचार्यजी म. फरमाते हैं
नामाकृति-व्यभावैः पुनतखिजगज्जनम्। क्षेत्रे काले च सर्वस्मिन्नर्हतः समुपास्महे ॥
आध्यात्मिक विकास यात्रा
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