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________________ धारण करके भिन्न-भिन्न प्रकार के शरीरादि धारण करके किसी न किसी गति में छोटा-बडा बनता ही रहता है। यह जीव गोत्र कर्म के रंग में रंगा हुआ यह जीव हरिजन भंगी-चमार-ब्राह्मण-क्षत्रिय-शूद्र-वैश्य आदि बनता हुआ उच्च-नीच गोत्र में जाना पैदा होने का काम करता रहता है । वेदनीय कर्म भी अपनी असर दिखाने में कोई कमी नहीं छोडता है और जीव को सुखी, दुःखी, रोगिष्ट, बिमार, दर्दी बनाता है। कभी स्वस्थ-निरोगी तो पुनः कभी अस्वस्थ रोगी बनाता है । आयुष्य कर्म चारों गति में नियत काल तक जेल में अपराधी की तरह बंदिस्त रखता है। अपने निर्धारित वर्षों के काल तक जंजीर में जकड कर रखता है । बस, आयुष्य की समाप्ति के कारण जीव को मरकर इस फनी दुनीया से विदाय लेकर जाना पडता है । और जाने के पहले आगामी जन्म का आयुष्य साथ ही ले जाता है । परिणाम स्वरूप पुनः जन्म लेना ही पड़ता है। कई बार तो उपक्रमों से तूटता हुआ सोपक्रम आयुष्य लेकर जीव अधूरे आयुष्य में ही मृत्यु की शरण स्वीकार लेता है । इस तरह आयुष्य कर्म के कारण जन्म-मरण धारण करते हुए कुछ काल देह में रहते रहते-फिर अन्य नया देह धारण करता हुआ संसार की इस जेल का अनन्त काल निर्गमन करता ही रहता है। ___जी हाँ, इन कर्मों के विपाक में सुख की छाया है। कई बार कर्म सुखी भी करता है। किये हुए पुण्य कर्म के उदय से जीव सुख-वैभव-धन संपत्ति भी प्राप्त कर लेता है। सत्ता के पद पर ऊँचा बड़ा भी बन जाता है । अरे ! राजा-महाराजा से चक्रवर्ती–इन्द्र की वैभवी सत्ता भी कर्म ही देता है। और यहाँ तक कि कभी कभी तो तीर्थंकर नामकर्म की उत्कृष्ट पुण्याई प्रदान करके समवसरण पर बिराजमान कर देता है । सोने के मेरुपर्वत पर... जन्माभिषेक इन्द्रों-देवताओं के हाथों से करवाता है । कई देवता सेवा करते हैं । ऐसा महान तीर्थंकर भगवान भी पुण्य कर्म की प्रकृति बनाता है । यह सब कर्म की लीला सच्चाई इसी में है कि जीव को कृतकर्म की लीला माननी चाहिए इसके बजाय निरंजन–निराकार-वीतरागी बने हुए भगवान को आपनी अज्ञानतावश, मिथ्याज्ञानरूप विपरीतज्ञान के कारण बीच में लाया और ईश्वर की लीला कहकर ईश्वर पर आरोपण किया। बस, अब ईश्वर का स्वरूप गलत समझकर चलने लगा। फिर कैसे सम्यग् ज्ञान-सच्ची समझ कहाँ से आएगी? निर्दोष ईश्वर को भक्त ने अपने दोषारोपण से दोषित किया और निर्दोष स्वरूप विकृत करके दोषग्रस्तरूप से मानने लगा। परिणाम स्वरूप सच्चे अर्थ में जैसे भगवान थे वैसे नहीं मान सका। लेकिन अपने आपको जैसे चाहिए थे वैसे बना १०४० आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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