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________________ बैठे हैं । अपने रंग में रंगकर अपनी असर में आत्मा को असरग्रस्त करना । अपना विपाक दिखाकर आत्मा को सुखी-दुःखी करना । इस तरह सादि-सान्त स्थितिवाले कर्म भी आत्मा को अनादि-अनन्त काल तक भी अपनी पक्कड में रख सकते हैं। जैसे अभवी और जातिभव्यादि जीवों को अपनी पक्कड में बंदिस्त रखता है । अनन्त शक्तिमान यह चेतनात्मा इन जड कर्मों के परमाणुओं के बंधन में बंदिस्त होकर उसकी गलामी की जंजीरों में जकडी हुई रहकर “कर्म नचावे तिम ही नाचत” की स्थिति खडी कर दी है । “कत्थवि बलिओं कम्मो, कत्थवि बलिओ अप्पा” कभी कर्म बलवान और कभी आत्मा बलवान । इस तरह इस दो मल्लों का युद्ध चलता ही रहता है । इस द्वन्द्व में अपनी पहचान कर्म के द्वारा करती-कराती हुई आत्मा अनन्तकाल व्यतीत कर देती है । यद्यपि अन्तिम विजय तो आत्मा की ही होती है, लेकिन अनन्तकाल तक कर्म की थपेडें खाती हुई और ८४ लाख जीवयोनियों में जन्म-मरण धारण करती हुई चार गति के चक्ररूप ऐसे संसार चक्र में अनन्तकाल तक परिभ्रमण करती हुई मदारी के हाथ में नाचते हुए बन्दर जैसा खेल खेल रही है । इसमें कर्म की लाचारी अनुभवती हुई बिचारी आत्मा... कर्म के विपाक से कभी . राजा, कभी रंके, कभी साधु तो कभी शैतान, कभी इन्द्र तो कभी पशु-पक्षी, कभी चिंटी-मकोडे, तो कभी पृथ्वी-पानी-वनस्पति, कभी अमीर तो कभी गरीब, कभी स्त्री तो कभी पुरुष, कभी नपुंसक, कभी नरक का नारकी तो कभी स्वर्ग का मालिक देव, कभी हीरे-मोती में तो कभी सोने-चांदी-लोहे में और अन्त में पुनः अपने मूल उद्गमस्थान निगोद में भी जाकर संसार नाटक के मंच पर विविध रूप-रंग धारण करती हुई कर्म की थपेडों में धूप-छाँव की तरह सुख-दुःख सहन करती हुई अनन्त काल निर्गमन करती रहती है । इतना प्रबल और दृढ कर्म का बंध है कि...स्वयं अनन्तकाल तक कर्म के पाश में जकडी हुई रहती है। नाचती हुई रहती है। कभी ज्ञानावरणीय कर्म के आधीन मूर्ख--पागल-मूंगा-बहरा-तोतडा, कभी दर्शनावरणीय कर्म के आधीन अंधा-निद्रालु, कभी दर्शन मोहनीय कर्म के कारण उन्मत्त मिथ्यात्वी, नास्तिक बनकर पागल की तरह कुछ भी प्रलाप करता रहता है। इसी तरह चारित्र मोहनीय कर्म के उदय के कारण कभी कषायी, क्रोधी, अहंकारी-मायावी, लोभी लालचु, दस्यु, चोर, लूटेरा, गुंडा, डाकु, खुनी, हत्यारा, हिंसक, स्त्री-पुरुषादि कामी वासना का कीडा, विदूषक, हँसी-मजाकी, रोनेवाला आदि बनकर सब पाप करनेवाला पापी बनता है । कभी अंतरायकर्म के उदय से अशक्त, कमजोर, दीन हीन-लाचार-गरीब-भिखारी-सत्त्वहीन शक्तिहीन बनकर दर-दर भटककर याचना करता रहता है। कभी नाम कर्म के कारण चित्र-विचित्र रूप-रंगादि ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास" १०३९
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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