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________________ या संपदाऽर्हतो याच विपदा नारकात्मनः । एकातपत्रता तत्र पुण्यापुण्यस्य कर्मणः ।। श्री हेमचन्द्राचार्यजी म. योगशास्त्र में फरमाते हैं कि.. प्रतिक्षण उत्पन्न होनेवाला जो कर्मफल का उदय सुख-दुःखात्मक है । उसी का चित्ररूप यह संसार है ऐसा चिन्तन करना ही विपाकविचय नामक धर्मध्यान है। विपाक-संपदा और विपदा उभयरूप है। संपदा-संपत्ति सुखरूप है । जो अरिहंत परमात्मा आदि को प्राप्त होती है । समवसरण की रचना, अष्टप्रातिहार्य, अतिशयादि भी सर्वोत्तम पुण्य प्रकृति के विपाकरूप ही है । और संसार में नरक गति की प्राप्ति विपदा-विपत्ति दुःखरूप विपाक ही है। पुण्य-पाप रूप कर्म का ही परिणाम है । इस तरह समूचे संसार पर कर्म की एकछत्रता-एकचक्री शासन चलता है। अशुभशुभकर्मविपाका-नुचिन्तनार्थो विपाकविचय: स्यात् ।। २४८ ॥ प्रशमरति प्रकरण में पू. वाचक मुख्यजी भी इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि... अशुभ और शुभकर्म के फल का चिन्तन करना ही विपाक विचय है। कर्म का स्वरूप सामान्य बोध रूप वर्णन पहले काफी कर चुके हैं । वहाँ से कर्म की समस्त विचारणा पढना फिर मनन करके चिन्तन करना चाहिए । मिथ्यात्व-अविरति-प्रमाद-कषाय और योगादि इन पाँच प्रमुख बंध हेतुओं से जीव जिन १८ प्रकार की पापप्रवृत्ति करके अशुभ कर्म उपार्जन करता है। वे कर्म प्रकृति बंध, रसबंध, स्थितिबंध और प्रदेशबंधरूप चारों प्रकार से बंधस्थ होकर आत्मप्रदेशों पर लगे हए रहते हैं । वे चारों प्रकार से बंधे हए कर्म बंध, उदय, उदीरणा और सत्ता के रूप में चारों प्रकार से आत्मा के साथ रहते हैं । अनादि अनन्तकालीन द्रव्यस्वरूप से ध्रुवरूप रहनेवाली इस आत्मा पर कार्मणवर्गणा के पुद्गल परमाणुरूप ये कर्मपिण्ड आत्मा के साथ चिपककर अपनी जड प्रकृति का आवरण एक प्रकार का आच्छादन करके... आत्मगुणों को दबाकर-ढककर रखते हैं और अपनी प्रकृति की असर दिखाते हैं । परिणामस्वरूप आत्मा के गुण व्यवहार में प्रकट न होकर विपरीतभाव में दुर्गुण या दोष प्रकट करके आत्मा को वैसा बना देते हैं । काल प्रवाह की दृष्टि से अनादि सान्त होते हुए भी ये कर्म प्रत्येक व्यक्तिगत बंध की स्थिति से सादि-सान्त की कक्षा के हैं । जब नए कर्म बंधते हैं तब आदि-शुरुआत के कारण सादि है और जब उनकी अवधि-स्थिति समाप्त हो जाती है तब उदयावलिका में आकर अपनी असर दिखाकर जब आत्मप्रदेशों से अलग होकर बिखर जाते हैं तब सान्त स्थिति रहती है । इस तरह सादि-सान्त कर्म भी भूतकाल में अनादिकाल से आत्मा को अपने पंजे में जकडे आध्यात्मिक विकास यात्रा १०३८
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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