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इत्यात्मनः परेषां च ध्यात्वाऽपायपरंपराम्।
अपायविचयं ध्यानमधिकुर्वीत योगवित् ॥७॥ इस तरह अपने तथा दूसरों की दुःखात्मक अपाय परंपरा का ध्यान करते रहना, यह अपायविचय नामक ध्यान है । जिसे योग के जानकार साधक करते हैं। इस तरह जो भी अप्रमत्तमुनि या ध्यानसाधक ध्याता आत्मा अपाय दुःखात्मक रागादि-दोषादि कारणों युक्त... करुणा से दयार्द्र हृदय होकर चिन्तन करता रहे यह धर्मध्यान है । अपाय विचय नामक शुभ ध्यान है । इसके प्रभाव से जीव की वीतराग-वीतद्वेष-निष्कषाय और संपूर्ण सम्यक्त्ववान बनने की पात्रता क्रमशः प्रकट होती है। इस महान गुण को प्राप्त करने के लक्ष्यरूप यह ध्यान करना चाहिए। विपाक विचय धर्मध्यान. विपाक शब्द परिणाम-फल वाचक है । Result रूप कहते हैं। लेकिन किसका फल? फल अन्त में प्राप्त होता है लेकिन उसके पहले क्रिया होनी अनिवार्य होता है। विद्यार्थी परीक्षा में पेपर लिखने की क्रिया करता है तब जाकर कालान्तर में उसे फल मिलता है। प्रत्येक की हुई क्रिया भूतकालीन बन जाती है और आगे फल-विपाक मिलता है। यहाँ विषय आध्यात्मिक है। अतः आत्मा ने कब कौनसी कैसी क्रिया की, जिसके फलस्वरूप आत्मा को विपाक–फल भुगतना पडता है । इसके उत्तर में एक शब्द का ही प्रयोग है वह है- "कर्म" । बस, आत्मा ने भूतकाल में कालान्तर में ऐसे भारी पापादि कर्म किये हैं जिसके फलस्वरूप जीव को भावि में विपाक–फल भुगतने पडते हैं।
स विपाक इति ज्ञेयो यः स्वकर्मफलोदयः ।
प्रतिक्षणसमुद्भूतचित्ररूपः शरीरिणाम् ।। जीवों के द्वारा किये हुए कर्मों का जब उदय होता है तब वह फल-विपाक कहा जाता है । जो सुखात्मक-दुःखात्मक उभयरूप होता है । यह कर्मोदय क्षण-क्षण प्रति उदय होता है । ज्ञानावरणीयादि अनेक प्रकार का यह कर्म का उदय विपाकरूप-फलदायी बनता है।
अतः इस विपाक–फल के रूप में अशुभ कर्मों के उदय को दुःख फलदायी और शुभ पुण्यकर्म सुखफलदायी है।
प्रतिक्षण समुद्भूतो यत्र कर्मफलोदयः । चिन्त्यते चित्ररूपः स विपाकविचयो मतः ।।
ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास"
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