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________________ सका । सचमुच, यह ईश्वर की लीला नहीं यह तो मनुष्य की लीला ईश्वर से बडी रही जिसके कारण ईश्वर को इन्सान जैसा चाहता था वैसा बना पाया। इसके कारण सत्य सम्यग् स्वरूप ही ईश्वर का लुप्त कर दिया। और नहीं है वैसा विपरीत उल्टा स्वरूप धारण करके पीतल को सोना समझकर चलने लगा। उसके कारण भविष्य में धक्का लगने पर आँख खुलेगी तब रोना आएगा। ठीक इसी तरह ऐसे मिथ्यात्व के कारण अनन्त काल संसार चक्र में निर्गमन करके जब सच्चा सम्यग् ज्ञान पाएगा तब अफसोस होगा कि गलत-विपरीत धारणा में निरर्थक बहुत लम्बा काल बिताया। आखिर अन्त में जाकर हारकर भी सही सच्ची धारणा–मान्यता पर आना पडा। पहले लिखे हुए ईश्वर विषयक भ्रान्त धारणाओं के मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के चक्कर में फसकर जीव ने अनन्तकाल निर्गमन किया और अभी भी यदि मिथ्यात्व का मोह नहीं छोड़ेगा तो भविष्य भी अनन्तकाल का बनता जाएगा। क्या फायदा? क्या इसी तरह संसार के ८४ लक्ष जीवयोनियों के चक्र में भटकता ही रहेगा। एक बात निश्चित है कि... जब तक सम्यग् दर्शन सच्चा ज्ञान प्राप्त, सच्ची श्रद्धा प्राप्त नहीं करेगा तब तक इस संसार चक्र में भटकता ही रहेगा। इसलिए सही मानिए कि ....न तो ईश्वर संसार को बनाता है और न ही इन्सान को चाहिए वैसा ईश्वर को बनाए। कभी भी ईश्वर की लीला मानने की मिथ्या धारणा भी मत अपनाइए । जी हाँ, एक मात्र स्वकृत कर्म की ही यह लीला है । मकडी जैसे अपनी ही बनाई हुई जाल में फस जाती है ठीक उसी तरह यह जीव भी स्वयं उपार्जित कर्म की जाल में फस जाता है । और विपाकरूप में सुख-दुःख को भुगतता ही रहता है। इति मूलप्रकृतीनां विपाकास्तान् विचिन्वतः। विपाकविषयं नाम धर्मध्यानं वर्तते ।। __इस तरह मूल प्रकृति और आगे उत्तर-अवान्तर कर्म की प्रकृतियों के विपाकों-फलविशेष विशेष परिणामों का चिन्तन करते हुए विपाक विचय नामक धर्मध्यान करना चाहिए। संस्थानविचय धर्मध्यान अनाद्यनन्तस्य लोकस्य स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मनः । आकृति चिन्तयेद्यत्र संस्थानविचयः स तु ।। १०/१४ ।। योगशास्त्र में कहते हैं कि... अनादि-अनन्त ऐसे समग्र लोकरूप इस अनन्त ब्रह्माण्ड में उत्पत्ति-स्थिति और व्यया(नाशा)त्मक ऐसे पदार्थों का चिन्तन करना, ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास" १०४१
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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