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________________ अपायविचय धर्मध्यान राग-द्वेष-कषायाद्यैर्जायमानान् विचिन्तयेत्। यत्रापायांस्तदापायविचयध्यानमिष्यते ।। १०/१० ।। धर्मध्यान का दूसरा भेद अपायविचय का है । अपाय का सीधा अर्थ दुःख है । मात्र दुःख का विचार करना। इससे तो आपको भ्रान्ति हो जाएगी कि क्या दुःखों की चिन्ता-विचारण करना भी धर्मध्यान है ? जी नहीं ? इतना ही मत समझना । जी हाँ दुःख की चिन्ता-दुःख संबंधी विचारणा मात्र जरूर है । लेकिन जब व्यक्ति मात्र अपने ही दुःख की चिन्ता रोज करता रहे तो उसे धर्मध्यान नहीं लेकिन आर्तध्यान कहेंगे। ऐसे आर्तध्यान से तो मात्र कर्मबंध होगा। लेकिन धर्मध्यान तो कर्मक्षयकारक है। अतः दोनों में आसमान-जमीन का अन्तर है । इसलिए अन्तर इतना ही करना है कि... यह अपने स्वयं के दुःख की अपेक्षा संसार के समस्त जीवों के दुःख की चिन्ता करने लगे। एक बार आप करके देखिए । जब आप मात्र अपनी खुद के दुःखों की चिन्ता करेंगे तब उसमें भी मात्र कारणभाव रहित दुःख देखेंगे। सिर्फ शारीरिक-मानसिक पीडा-वेदना की ही चिन्ता रहेगी। लेकिन जब आप समस्त जगत् के जीवों के दुःख देखने लगेंगे और उसमें भी उन दुःखों के कारणभूत कर्मों के जन्य-जनकभाव के संबंध के साथ देखेंगे तब आपको वास्तविकता का बोध होगा। यही बात यहाँ योगशास्त्र-ज्ञानार्णव-ध्यानशतकध्यानदीपिकादि ध्यानविषयक अनेक ग्रन्थों में वर्णित किया गया है। साफ कहते हैं कि. ...राग-द्वेष-कषायादि से उत्पन्न निर्मित तथाप्रकार के कर्मों से जन्य जो अपाय-दुःख है उनका चिन्तन करना ही अपायविचय धर्म ध्यान है। दुःख का वास्तविक कारण क्या है? सम्यग्दर्शन के अभाव में अनेक जीव दुःख का अनुभव जरूर कर लेते हैं । लेकिन दुःख के मूलभूत कारण का पता नहीं लगा पाते हैं। संसार में दुःख के क्षेत्र में समानता जरूर देखी जाती है। आखिर दुःख दुःख ही है। चाहे एक को हो या अनेक हो । जैसे एक बालक की माँ मर जाएगी तो उससे उसको जितना दुःख होगा उतना ही दुःख दूसरे-तीसरे-चौथे बालक की माँ के मरने पर उसे भी दुःख उतना ही होगा। किसी को चोट लगेगी तो उसे जितनी पीडा-वेदना होती उतनी ही... दूसरे-तीसरे-सबको होगी। चाहे पुत्र मृत्यु हो, या चाहे पति की मृत्यु हो, या चाहे पौत्र या पत्नी की मृत्यु हो संसार में वियोग सर्वत्र दुःखदायी ही है। ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास" १०३३
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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