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लेकिन संसार में अधिकांश लोगों ने अपने दुःख के कारण रूप में ईश्वर को ही दुःखदाता मान रखा है। अब जब ईश्वर को ही दुःख दाता मान रखा है तो सोचिए ! आखिर ईश्वर के प्रति उनकी विचारधारा कैसी बनेगी? कैसे भाव बनेंगे ईश्वर के प्रति? जानवर-प्राणी भी समनस्क-मनवाले हैं। अतः वे भी विचारक जरूर हैं। बोल नहीं पाते हैं यह बात सही है । लेकिन विचार करने में कोई तकलीफ नहीं है । मूक विचारक हैं। उन्हें भी दुःखादि का अनुभव बराबर होता ही रहता है । वे दुःख के कारणरूप में किसका निर्णय करेंगे? कुछ भी नहीं। वे न तो ईश्वर को पहचानते हैं और न ही कर्म-धर्म को। अज्ञानवश आए हुए दुःख को सहन करने के सिवाय कोई विकल्प ही नहीं है । आखिर क्या करेंगे? वे पशु हैं । अतः अज्ञानवश कारण का निर्णय नहीं कर पाते हैं। लेकिन मनुष्य जो समझदार ज्ञानवान है वह भी यदि दुःख के सही सच्चे कारण को न ढूँढ पाए
और ईश्वर को ही दुःखदाता-दुःख का कारण मान ले तो यह कितना उचित होगा? कहाँ तक सही होगा? भ्रान्ति-भ्रमणावश ईश्वर को ही दुःखदाता मानकर मनुष्य ने अपनी अज्ञानता, मिथ्यात्व को प्रदर्शित किया है। (वैसे ईश्वर के बारे में इसी पुस्तक में काफी विस्तार से विचारणा की गई है । अतः कृपया वह पढ-समझकर अपने मिथ्यात्व को दूर करें और सही सच्चे सम्यग् ज्ञान की वृद्धि करिए।)
अतः सत्य यथार्थ वास्तविकता यह है कि . . . जीव स्वयं जो राग-द्वेष-मोह-कषाय-पापादि प्रवृत्ति करता है, तथा उनसे जिन कर्मों को उपार्जित करता है उन बांधे हुए कर्मों के कालान्तर-या भवान्तर में उदय में आने के कारण जो दुःख पाएँगे, भोगेंगे उनका सही विचार करना चाहिए।
जी हाँ । यह निर्विवाद स्पष्ट सत्य है और त्रैकालिक शाश्वत सत्य है कि- दुःख सुख की प्राप्ति एक मात्र कृतकर्म के कारण ही है। कर्म शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के हैं। बस, हमारी व्यावहारिक भाषा में शुभ कर्म को पुण्य तथा अशुभ कर्म को खराब
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आध्यात्मिक विकास यात्रा