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६ कायोत्सर्गादि ६ प्रकार की गणना होती है। ध्यान को भी आभ्यन्तर तप के रूप में गिना है । तप का मुख्य साध्य निर्जरा है। जितनी ज्यादा निर्जरा हो, उतने ही ज्यादा कर्म कटेंगे । पाप धुलेंगे । इसलिए ध्यान पाप प्रक्षालन करता है । कर्म के बंधन टूटते हैं। शिथिलीकरण होता है । और नष्ट होते हैं । इस तरह कर्मक्षय होता है। निर्जरा से आत्मा शुद्ध होती है । समीप आती है।
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इस तरह ध्येयानुरूप ध्यान होता है। ध्येय फलरूप होता है । जबकि ध्यान साधना के रूप में क्रियात्मक होता है। जैसा फल निर्णय ध्येय लक्ष्य वैसी साधना उसके अनुरूप होगी ।
अफसोस तो इस बात का है । कर्म निर्जरा एवं आत्मशुद्धि के लक्ष्य-ध्येयवाला ध्यान होना चाहिए। जिससे निर्वाण की प्राप्ति संभव होती है। लेकिन आज ध्यान की भी दुकानदारी चलानेवाले तथाकथित ध्यानियों-योगियों ने ध्येय भी बदल दिया । ध्येय की सर्वोच्चता से उसे उतार दिया है। और निम्नस्तर पर लाकर रख दिया है। इससे बस, भवध्यान करके मन की शान्ति पाओ, मन की बिमारियाँ, रोग मिटाओ । मात्र तनाव कुछ कम करना, मानसिक शान्ति प्राप्त करना, मनःस्वास्थ्य प्राप्ति के ही तत्कालीन फल का अनुभव कर लेना पर्याप्त समझ लिया है। सोचिए ! जब ध्येय ही इस निम्नस्तर पर ला दिया है तो फिर ध्येयानुरूपी ध्यान भी कैसा होगा ? फिर ध्यान का स्तर कितना नीचे उतरेगा । अब फिर निर्जरा का प्रमाण कितना बचेगा ?
कोई-कोई थोडा सा एक कदम और आगे बढते हैं कि... हमारा मन तनाव मुक्त होकर शान्त बनकर मन की एकाग्रता साध लें। हम मन की उठती संवेदनाओं को सिर्फ देखते रह जाय ? यह भी कहाँ तक उचित है ? जी नहीं, ध्याता सर्व प्रथम संवर करे । आश्रव का निरोध हो जाए। नए पापकर्मों का आगमन - प्रवेश न हो। फिर पुराने कर्मों की निर्जरा हो । निर्जरा भी ढेर सारी होनी चाहिए। कर्म ध्यानरूपी अग्नि में जलकर राख
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बन जाय, आत्मा शुद्ध, शुद्धतर, शुद्धतम बन जाय । कर्म के औदयिक भाव की स्थिति ही बदल जाय तथा आत्म- - गुणों की अनुभूति हो और उन गुणों से जन्य आनन्द की अनुभूति में साधक - ध्याता लीन हो जाय बस, उस मस्ती में रहे । यही ध्यान के फल रूप में अपेक्षित
है । लेकिन तथाकथित बन बैठे गुरुओं और ध्यानियों - योगियों को निर्जरा से बिल्कुल
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मतलब ही नहीं है । शायद उल्टा पापाश्रव भी काफी होता होगा फिर भी ध्यान कर रहे हैं। ऐसा दुनिया को आभास कराते रहना । यह कहाँ तक उचित है ?
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आध्यात्मिक विकास यात्रा