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________________ आज्ञा यत्र पुरस्कृत्य सर्वज्ञानामबाधिताम्। तत्त्वतश्चिन्तयेदस्तिदाज्ञा ध्यानमुच्यते ॥ १०॥८॥ सर्वज्ञ भगवंतों की अबाधित आज्ञा को ही आगे करके तत्पूर्वक ही आत्मा-परमात्मा-मोक्षादि तत्त्वों का यथार्थ चिन्तन किया जाय वही आज्ञाविचय नामक प्रथम धर्मध्यान है। इसलिए आज्ञा शब्द से आगम, सिद्धान्त तथा जिनवचन ये तीनों अर्थ अभिप्रेत हैं। षट्खंडागम की धवला टीका में यही स्पष्ट किया है कि- “तत्थ आणा णाम-आगमो, सिद्धंतो, जिणवयणमिदि एयट्ठो"। इसलिए आज्ञा मानने का अर्थ जिन वचन को, आगमशास्त्र को तथा सिद्धान्त को स्वीकार करना ही चाहिए। जिनागम में प्रतिपादित नय, प्रमाण, निक्षेप, सप्तभंगी, नौं तत्त्व, पंचास्तिकाय - षट् द्रव्यादि पदार्थ जितने भी हैं उन सबका नय-निक्षेप-प्रमाणादि द्वारा चिन्तन करना ही आज्ञा विचय प्रकार का धर्म ध्यान . अरिहंत तीर्थंकर परमात्मा आप्त महापुरुष हैं । वैसे लौकिक और लोकोत्तर दोनों प्रकार के आप्त पुरुष कहे गए हैं । लौकिक आप्त-पुरुष तो माता-पितादि भी हैं । वे भी पुत्र के लिए हितभावना पूर्वक ही आज्ञा फरमाएंगे। अतः व्यवहार में उनकी आज्ञा भी ग्राह्य है। तीर्थंकर वीतराग सर्वज्ञ होने से लोकोत्तर कक्षा के महान आप्त पुरुष हैं । अतः उनकी आज्ञा को हमारी आत्मा के कल्याण के लिए संपूर्ण रूप से उपयोगी तो क्या उपकारी ही है । अतः वह तो आँख मूंदकर स्वीकार्य एवं आचरणीय है ही । इसमें रत्तीभर भी संदेह होना ही नहीं चाहिए। श्रद्धा का केन्द्र भी यही भाव है “जं जं जिणेहिं भाषियाइं तमेव निःसंकं सच्चं" जो जो भी जिनेश्वर भगवंत ने कहा है वह वह निःशंक शंकारहित रूप से सत्य ही है। ऐसा स्वीकारना ही सम्यग्दर्शन है। यही सम्यग्दर्शन की व्याख्या है। मोहनीय कर्म के अहंभाव के उदय के कारण कई जीवों की वृत्तियों में तो इतनी ज्यादा ममकार-अहंकार की बुद्धि और भाषा बन जाती है कि- "बस, मैं कहूँ वही सत्य है । लेकिन अरे भद्र ! थोडा सा सोच तो सही, कहाँ वे अनन्तज्ञानी और कहाँ तूं । उनकी तुलना में अनन्तवें भाग का ज्ञानधारक? बताइए, अनन्तवें भाग के ज्ञानवाला तूं अल्पज्ञ और कहाँ अनन्तगुने ज्ञानवाले वे सर्वज्ञ । दोनों का मेल ही कहाँ मिलेगा? फिर उनका वचन छोडकर तेरा वचन क्यों स्वीकार्य बनाना चाहिए। ऐसे सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवान ने अपने अनन्त केवलज्ञान से जानकर तथा केवलदर्शन से देखकर तथा संपूर्ण वीतरागभाव से सर्वथा संपूर्ण शुद्ध सत्य तत्त्वों का स्वरूप जो ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास" १०२५
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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