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बताया है उससे जिन “जीव - अजीव - पुण्य-पाप - आश्रव - संवर-बंध - निर्जरा और मोक्ष” नामक नौं तत्त्वों का स्वरूप बताया है वही गम्य-स्वीकार्य आचरणीय उपादेय तत्त्व हैं । पाप - आश्रव सर्वथा हेय त्याज्य हैं। जबकि संवर- निर्जरा उपादेय है । कहा है “आश्रवो सर्वथा हेयः स्यात् संवरो मोक्षकारणम्” । आश्रव तो सर्वथा त्याज्य है और संवर मोक्ष का कारण होने से ग्राह्य है । अतः उपादेय है । आचरणीय है ।
प्रवृत्ति - निवृत्ति उभयरूप आज्ञाधर्म
जैसे रास्ते पर लिखा हुआ होता है कि- “कृपया यहाँ से रास्ता क्रॉस मत करिए.. पुल पर से जाइए" । इस वाक्य में प्रवृत्ति रूप आज्ञा आज्ञा भी है और निवृत्ति रूप आज्ञा भी है । अतः क्या करना यह प्रवृत्तिरूप - विधेयात्मक आज्ञा का स्वरूप भी दर्शाया है । - और दूसरी तरफ निवृत्ति - निषेधात्मक आज्ञा भी प्रभु ने ही की है । वंदित्तुसूत्र में स्पष्ट किया है कि
पडिसिद्धाणं करणे, किच्चाणमकरणे पडिक्कमणं । असद्दहणे अ तहा, विवरीअ परुवणाए अ ।।
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इस श्लोक में प्रतिक्रमण करने के पीछे प्रमुख ४ कारण बताते हुए स्पष्ट कहा है कि—- १) प्रतिषेध-अर्थात् निषेध | भगवान ने जिस बात का निषेध कर दिया है उसका आचरण सर्वथा करना ही नहीं चाहिए । फिर भी जिसने आचरण कर लिया हो वह प्रतिक्रमण करने का अधिकारी है । उदा. अनन्तज्ञानी ने अनन्त जीवों के पिण्डरूप ऐसे बादर साधारण वनस्पतिकाय के आलु, प्याज, गाजर, मूला, शक्करकंद, लहसून, अदरक, अंकुरित धान्य - आदि अनन्तकाय का उपयोग करना सर्वथा निषेध कर दिया है । रात्रिभोजन करना सर्वथा निषिद्ध कर दिया है। फिर भी निषिद्ध आज्ञा का आचरण करते हैं तो पाप के भागीदार बनते हैं । अनन्त जीवों की हिंसा के भागीदार बनते हैं । शास्त्रों से विदित यह आज्ञा धर्म के रूप में आचरणीय होते हुए भी जो न आचरे, न पाले तो निश्चित रूप में वह अधर्माचरण - पापाचरण करनेवाला अधर्मी- पापी कहलाता है । अरे भगवान ! बिचारे सामान्य गृहस्थों की तो बात जाने दो लेकिन... कहलानेवाले संत, मुनि या साधु महाराज भी यदि गोचरी में - पात्र में लेकर यथेच्छ भोजन करते हैं । तो फिर औरों का तो क्या कहा जाय ? ऐसे संत-सतियां जो दूसरों को “जीव दया पालो ” का उपदेश देते हैं । और स्वयं अनन्त जीवों की विराधना के भागीदार बनते हैं। कितना गलत है यह । और फिर इसके बचाव के लिए बालिश तर्क देते हैं कि “हमारे तो पात्रे पडीयो पच्चक्खाण आध्यात्मिक विकास यात्रा
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