________________
उचित है कि “इच्छाए धर्म” कहना ? कदापि नहीं । यह तो संसार की सबसे बडी मूर्खता कहलाएगी ।
" आणाए धम्मो — "
“ आणाए धम्मो ” अर्थात् " आज्ञा में धर्म है ” आज्ञा धर्मरूप है और धर्म आज्ञारूप ही है । आज्ञा से बाहर हो उसे धर्म नहीं कहा जा सकता, और धर्म से बाहर हो उसे आज्ञा नहीं कही जा सकती । अब यहाँ प्रश्न उठता है कि किसकी कैसी आज्ञा धर्मरूप गिनी जा सकती है ? ऐसा कौन जो समस्त जगत् को आज्ञा प्रदान कर सकता है ? इन प्रश्नों का विचार करने से स्पष्ट होता है कि ... आज्ञा प्रदाता मूलभूत सर्वज्ञ - सर्वदर्शी केवली ही होने चाहिए | क्योंकि उन्होंने ही समस्त कर्मावरण का क्षय करके केवलज्ञान - केवलदर्शन प्राप्त किया है । वे ही सर्वज्ञ सर्वदर्शी बने हैं। इसके पहले राग-द्वेष के विजेता वीतरागी बने हैं। योगशास्त्र की टीका में स्पष्ट कहा है कि
दोषा राग-द्वेषमोहाः संभवति न तेऽर्हति । अदुष्टहेतुसंभूतं तत्प्रमाणं वचोऽर्हताम् ॥
आत्मा में जो कर्मजन्य दोषरूप है राग और द्वेष तथा मोह, ऐसे दोष जिनमें सर्वथा संभवते ही नहीं है क्योंकि वे वीतराग अर्हन् हो चुके हैं। अदुष्ट-निर्दोष हेतुभूत वचन होने से अरिहंतों के वचन ही प्रमाणभूत हैं ।
सर्वज्ञवचनं सूक्ष्मं हन्यते यन्न हेतुभिः ।
तदाज्ञारूपमादेयं न मृषा भाषिणो जिनः ।। १०/९ ॥
योगशास्त्र के मूल श्लोक में स्पष्ट किया है कि जिन-जिनेश्वर भगवान जो सर्वज्ञ होने के कारण मृषाभाषी है ही नहीं ऐसे सत्यवादी सर्वज्ञ का वचन ही प्रमाण रूप होने से आज्ञा के रूप में ग्रहण करना ही चाहिए। जो किसी भी छोटे से छोटे हेतु या तर्कादि कारण से भी गलत ठहराया ही नहीं जा सकता ।
१०२४
एवमाज्ञां समालम्ब्य स्याद्वादन्याययोगतः । द्रव्यपर्यायरूपेण, नित्यानित्येषु वस्तुषु ॥
जो स्याद्वाद और न्यायादि द्वारा शुद्ध ऐसा द्रव्य - पर्यायादि रूप है तथा नित्यानित्यवस्तु स्वरूप जानकर आज्ञाधर्म का आलम्बन लेना ही चाहिए ।
आध्यात्मिक विकास यात्रा