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अशुभ और अशुभतर लेश्याएँ हैं जो अशुभ आर्तध्यान तथा इससे भी अशुभतर कक्षा के रौद्रध्यान के कारण अशुभतम होती ही जाती है । अतः इन दोनों ध्यानों का इन दोनों लेण्याओं के साथ गाढ मित्रता का संबंध है । अतः अनिवार्य रूप से दोनों साथ ही रहते हैं। परन्तु साधक को चाहिए कि इनका स्वरूप अच्छी तरह समझकर शुभध्यान की धारा में आगे चढकर इन अशुभ ध्यानों का त्याग करें। ध्यान से परिवर्तन संभव है । इसलिए ध्यान करना ही चाहिए। शुभध्यान करने की ही कोशिश ज्यादा करनी चाहिए।
शुभ शब्द अच्छे, सुंदर, स्वच्छ, सफेद अर्थ को द्योतित करता है । इसलिए शुभध्यान में धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान की गणना की जाती है । शुभ से शुभतर, शुभतम की कक्षा उसे और भी ज्यादा शुभ करती जाती है । जिसे शुभ से अतिशुभ, अत्यन्त शुभ, अतिशय शुभ, अतिशय ज्यादा शुभ भी होता जाय तब यही शुभ शुद्ध बन जाता है । शुभ से शुद्ध की कक्षा का चढता हुआ क्रम देखिए ।
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अत्यतशभ
शुद्धतम
इस तरह जैसे हम एक एक सोपान चढते-चढते ऊपर ही ऊपर पहुँचते ही जाते हैं ठीक वैसे ही ध्यान करते करते ध्याता अध्यवसायों की शुद्धि के आधार पर शुभ से अतिशुभ, और आगे अत्यन्त शुभतर कक्षा का होता ही जाता है । बस, फिर शुभ से शुद्ध की कक्षा में परिवर्तित होता ही जाता है । फिर शुद्ध में भी शुद्धतर, शुद्धतम, अत्यन्त शुद्ध की कक्षा के क्रमशः चढते हुए सोपान आते ही जाते हैं। और अन्त में आत्मा सिद्ध बन जाती है । बस, सिद्ध बन जाने के पश्चात् अब ध्यान करना क्या है ? अब तो सहज रूप से
ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास"
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