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________________ सदाकाल तक अरे ! अनन्तकाल तक ध्यानरूप में ही रहना है। अब ध्यान में से बाहर अध्यान में आना ही नहीं है। फिर ध्यान करने न करने का सवाल ही कहाँ रहता है ? धर्मध्यान शुभ ध्यान का विषय भी शुभ ही होता है । तभी ध्यान भी शुभ हो सकता है । ज्ञेय विषय का शुभ होना अत्यन्त आवश्यक है। शुभ विषय से तात्पर्य ऐसा है कि.... शाश्वत तत्त्वों को साधक ध्याता अपने ध्यान का विषय बनाएँ । आर्त- रौद्र में जो संसार के, मोहविषयक विषयों राग-द्वेष से अभिभावित करके बनाता था, लेकिन अब उन विषयों को छोडकर, उनका सर्वथा त्याग करके अब तत्त्व के जो अनेक विषय आत्मा-परमात्मादि है उनको ग्रहण करें । उनको अपना ज्ञेय विषय बनाकर ध्यान की धारा में लाए। या फिर संसार के राग, द्वेष, मोह के जो जो विषय थे उनमें से राग- - द्वेष की मात्रा निकालकर संपूर्ण तटस्थ भाव से, साक्षीभाव से दृष्टा मात्र बनकर देखता रहे । उनकी यथार्थता - वास्तविकता क्या है ? कितनी है ? यह ढूँढता रहे । इसलिए शोधक बन जाय । जैसे आकाश में ऊपर देखते समय बादल दिखाई देते हैं । वे काले भी हैं सफेद भी हैं, नीचे भी हैं या ऊपर भी हैं लेकिन देखनेवाला उन हवा से चलनेवाले बादलों को आते हुए, जाते हुए देखे भी सही तो ... किसी भी प्रकार का कोई राग-द्वेष होने की कोई संभावना ही नहीं रहती है । क्योंकि मैं उनसे दूर हूँ और वे मेरे से दूर हैं। इसलिए मेरा उनसे कोई संबंध नहीं है और उनका भी मेरे साथ कोई संबंध नहीं है । जब संबंध ही नहीं है तब मोह बीच में से निकल जाने के कारण कोई राग-द्वेषात्मकता बीच में नहीं रहती है । अतः मात्र ज्ञानगम्यता ही शेष रहती है । ठीक है, उन बादलों को मैं मेरे ज्ञान का विषय मात्र बना लूँ । न कि राग का या द्वेष का । ठीक इसी तरह हम प्रतिदिन अख़बार पढते हैं। रोज कितने ही लोगों के जन्मने और मरने की खबरे पढते हैं । लेकिन पाठक को न तो कभी रोना आया और न ही हँसना आया । न तो दुःख हुआ और न ही सुख हुआ । क्योंकि उन मरनेवालों और जन्म लेनेवालों में मेरा कोई नहीं था । इसलिए मोहजन्य ममत्व भाव नहीं आया । तथा बिना ममत्व- - मोह राग-द्वेष हुए ही नहीं । मात्र उन खबरों को पाठक ने अपनी जानकारी (ज्ञान) का विषय बनाया और मन वहाँ से हटा लिया । वह घटना मात्र स्मृति में, जानकारी में थोडे दिन तक रहेगी फिर लुप्त होती ही जाएगी। फिर रोज नई-नई जानकारी बढती ही जाएगी और पुरानी स्मृति पटल पर से हटती भी जाएगी। यह तो प्रतिदिन का क्रम ही बन चुका है। आध्यात्मिक विकास यात्रा १०१८
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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