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________________ ध्यानदीपिका ग्रन्थकार ने आर्त और रौद्र दोनों प्रकार के ध्यानवाले जीवों की ६ में से प्रथम तीन कृष्ण, नील व कापोत लेश्याएँ होती है। वैसे आप जानते ही हैं कि ६ में से पहली ३ कृष्णादि अशुभ लेश्याएँ हैं। और शेष ... पीत, पद्म, शुक्ल ये ३ लेश्याएँ शुभ कक्षा की हैं । आर्तध्यान की भी कृष्णादि ३ लेश्याएँ जो हैं वही रौद्रध्यानवाले की भी हैं । लेकिन दोनों में काफी ज्यादा अंतर है। वह श्लोककार ने अतिसंक्लिष्ट शब्द से सूचित की है । 1 आप पहली पट्टी में तीनों लेश्याओं को देखिए.. यहाँ कालापन बहुत पतला है धुंधला है। जैसा कि हम काला चश्मा धूप में पहनते हैं। लेकिन इतना पतलापन रहता है कि काला-श्याम होने के बावजूद भी पारदर्शकता बन पाती है। जबकि काला - श्याम पेपर ही यदि हम आँखों के सामने रखें तो बिल्कुल ही दिखाई नहीं देगा। वैसी दूसरी रौद्रध्यान की कृष्णता रहती है । यहाँ रंग दिखाया है। रंग के आधार की तरह विचारों की भी अभिव्यक्ति रहती है । यद्यपि आर्तध्यानी के विचार खराब ही होते हैं लेकिन रौद्रध्यांनी के विचारों की संक्लिष्टता आर्तध्यान से भी हजारगुनी ज्यादा खराब रहती है। तीव्रता, तीव्रतरता और तीव्रतमता की तरतमता रहती है। इसलिए अतिसंक्लिष्ट शब्द का प्रयोग किया है । रौद्रध्यानी के विचारों में हिंसा की भावना - वृत्ति काम करती है । इसलिए कृष्ण लेश्या ज्यादा खतरनाक होती है । यद्यपि रौद्रध्यानी को भी कापोत एवं नील लेश्या बताई जरूर है, लेकिन हिंसक वृत्ति में कापोत से भी खराब ज्यादा नीललेश्या बन जाती है । और इससे भी निम्न स्तर पर उतर कर ... यह कृष्ण लेश्या में परिवर्तित हो जाती है 1 लेश्याएँ विचारात्मक है । अतः विचारों के साथ ही इनका परिवर्तन यथाशीघ्र ही होना संभव है। जैसे पैर कीचड से खराब होने पर कैसे लगते हैं ? ठीक वैसे ही लेश्याएँ अर्थात् विचारों की तरतमता भी कषायों से अधिवासित होती है । तब क्रूरता कठोरतादि काफी ज्यादा प्रमाण में मिल जाती हैं । अतः विचार ज्यादा खराब हो जाते हैं। और ऐसे समय में गति नामकर्म का निर्धारण हो जाय तो फिर आगे की गति वैसी होती है । इसलिए आर्तध्यानी की तिर्यंच गति और रौद्र ध्यानी की नरक गति होती है । इस तरह १४ गुणस्थानों में १ ५ वे गुणस्थान तक के स्वामी तिर्यंच तथा नरकगति में भी जा सकते हैं । ये दोनों 1 १०१६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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