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________________ १) औसन्न दोष में हिंसादि, छेदन-भेदन, वधादि की प्रवृत्ति ज्यादा करने का लक्ष्य रहता है । घातक–हिंसक शस्त्रादि बनाने की भी प्रवृत्ति रहती है इन्द्रियों के पोषण के लिए विविध प्रकार के उपायों की प्रवृत्ति भी ओसत्रदोषान्तर्गत आती है। - १) बहुल दोष— हिंसादि सभी साधनों की तथा रौद्रध्यान के चारों प्रकारों की अधिकाधिक इच्छा एवं वैसी प्रवृत्ति करते हुए भी उसमें संतोष तृप्ति न होना बहुल दोष ३) अज्ञान दोष— रौद्रध्यान का स्वभाव ही सद्ज्ञान का नाश करने का है इससे मूढता अज्ञानतादि की वृद्धि होती है । सत्कार्य—शुभकार्य की प्रीति–इच्छा सब समाप्त हो जाती है । और दुष्कार्य-दुष्ट पापप्रवृत्ति में संलग्नता उत्पन्न होती है । सत्शास्त्र श्रवण, सत्संगति, सत्कार्य में अप्रीति रहती है । अरुचि रहती है । सभी पापों की प्रवृत्ति में रुचि . रहती है । कामोत्तेजक प्रवृत्ति, हिंसादि की प्रवृत्ति में आसक्त रहना। ४) आमरणान्त दोष- मृत्यु पर्यन्त सतत क्रूर हिंसादि कार्यों में तथा १८ पापस्थानों में अनुरक्त रहना, तथा किये हुए पापों का मृत्यु शय्या पर भी पश्चाताप न करना, उल्टे अभिमान करना । मृत्युतक भी अपने पापों की पुष्टि करना, आदि के साथ अभी भी पाप प्रवृत्ति करने की तीवेच्छा रखना ये सब आमरणान्त दोष हैं। एवं चउव्विहं राग-दोस-मोहाउलस्स जीवस्स। रोद्दजाणं संसार वद्धणं नरयगई मूले ॥ ध्यानशतक - २४ ध्यान शतककार ने रौद्रध्यान जैसे अशुभ ध्यान के लिए नरकगति की प्राप्ति बताई है। चारों प्रकार के राग-द्वेष–मोहादि की वृत्ति के कारण रौद्रध्यान करनेवाला जीव नरकगति में जाता है। . ___अशुभध्यान से दुर्गति-आर्तध्यान से तिर्यंच पशु-पक्षी की गति मिलती है । जैसा आर्तध्यान का वर्णन कर आए हैं वैसी विचारधारावाला जीव मरकर तिर्यंच की पशु-पक्षी की गति में जाकर जन्म लेता है । तथा संसार में आर्तध्यान की वृत्तिवाले चिन्ताग्रस्त जीव लगभग १०० में से ९० फीसदी लोग आर्तध्यानी होते हैं। और ऐसे आर्तध्यान की वृत्तिवाले मृत्यु के बाद तिर्यंच गति में ज्यादा जन्मते हैं। यही कारण है कि चारों गति में से तिर्यंच-पशु-पक्षी में जीव आते ही रहते हैं । यही कारण है कि तिर्यंच गति में काफी संख्या बढ़ती ही जाती है। अतः तिथंच गति में जीवों की अनन्त की संख्या है। १०१२ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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