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________________ साथ ही मारपीट, लूटफाट, खून करना आदि कई निमित्त रहते हैं। ये सब निमित्त स्तेयानुबंधी हैं। स्तेयवृत्ति = अर्थात् चोरी की वृत्ति । दूसरों को भी साथ में चोरी में जोडकर उन्हें भी योजना सिखाना। किसी स्त्री आदि का अपहरण करना उसे धाकधमकी देकर गहने लूटना आदि अनेक प्रकार का यह रौद्रध्यान कहलाता है। - ४ था... संरक्षणानुबंधी प्रकार भी ऐसा है ... जिसमें— धनसंपत्ति की प्राप्ति उपार्जन तथा उपार्जित धन संपत्ति का रक्षण करना आदि अनेक धन संबंधि चिन्ता इसमें रौद्ररूप धारण करती है। धन, धान्य, मकान-बंगला, गहने, आभूषण, संपत्ति, जमीन, जायदाद, दुकान हाट, हवेली, अपने वैभव, तथा कुटुम्ब-परिवार आदि सब की रक्षा के लिए...आरंभ-समारंभ करना कुछ भी करना यह संरक्षणानुबंधी रौद्र ध्यान का स्वरूप है। इसमें पत्नी पुत्र भी आ गया, वैसे ही अर्थ संपत्ति धनधान्य की सामग्री भी आ गई। अतः परिग्रहानुबंधी रौद्रध्यान भी कहा जा सकता है । बस, रात-दिन अपनी धनसंपत्ति तथा कुटुंब परिवार एवं स्वजन-संबंधी की अनेक विषयक चिन्ताओं में ही फसा रहता है। बस, इससे ज्यादा अपनी आत्मा का तो विचार तक संभव ही नहीं है और कुटुंब–परिवार तथा धनसंपत्ति संबंधि चिन्ताओं की परिपूर्ति करने के लिए। हिंसा-झूठ-चोरी आदि किसी भी प्रकार के पाप का सेवन करके भी अपनी धारणा-इच्छा पूरी करने के लिए तैयार रहता है। प्रयत्नशील रहता है। अत्यन्त क्लेश-कषाय-कलहकारी बनता है । क्रूरता कठोरता-निर्दयतादि का विशेष उपयोग करता है । दूसरों को दुःख में, कष्ट में डालकर भी स्वयं खुश-राजी रहना चाहता है। मार-पीटांदि का प्रयोग करता हुआ भी कषाय विजय में अपनी विजय मानता है । अपने मनोज्ञ विषयों की प्राप्ति के लिए चाहे कितने ही लोगों को दुःख देना पडे वह तैयार रहता रौद्रध्यान के लक्षण रोहस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता तं जहा ओसन्नदोसे, बहुलदोसे, अन्नाणदोसे, आमरणंतदोसे। क्रूरता-चित्त काठिन्यं वंचकत्वं कुदंडता। निस्तुंशत्वं च लिंगानि रौद्रस्योक्तानि सूरिभिः ।। ९५ ॥ ध्यानदीपिकाकार तथा स्थानांग सूत्रकार दोनों ने रौद्रध्यान के लक्षण उपरोक्त रूप से ४ कहे हैं- इसमें क्रूरता, निर्दयता, चित्त की कठोरता, ठगवृत्ति, वंचकपना, खराब दंड-सजादि देने की वृत्ति... नृशंसतादि अनेक रौद्रध्यान को पहचानने के लक्षण हैं। ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास" १०११
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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