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नरक गतिगामी जीव रौद्रध्यानी होते हैं । क्रूर - निर्दय निष्ठुर वृत्तिवाले जीव रौद्रध्यानी हैं । वे नरकगति में जाते हैं । आर्त और रौद्र ध्यान दोनों प्रकार के अशुभ ध्यान करनेवाले की | अशुभगति - अर्थात् दुर्गति होती है । मति के आधार पर गति की प्राप्ति का सिद्धान्त सही है "यथा मतिः तथा गतिः” जैसी मति वैसी गति । आर्तध्यान के कारण चिन्तातुर बुद्धि होने के | कारण जीव असद्गति - दुर्गति में जाता है । जबकि परिणति ही निम्न श्रेणि की है । अतः गति भी निम्नकक्षा की नीची होगी । रौद्रध्यानी महारंभी महापरिग्रही होता है । बहु आरंभ - समारंभी होने के कारण दुर्गति - नरक की ही होगी । स्वस्तिक के स्वरित्तक को चित्र बाकी चित्र में देखिए ... तिर्यंच और नरक की दोनों गतियां नीचे हैं । नीचे की तरफ की दोनों दुर्गति है वे अधोगति है । इसलिए तिर्यंच और नरक की गति दुर्गति है । वृत्ति-प्रवृत्ति दोनों ही हीन कक्षा की निम्न प्रकार की होती है । अतः गति भी अधो कक्षा की दुर्गति होती है ।
आर्त- रौद्र ध्यान के गुणस्थानक -
तदविरत - देशविरत - प्रमत्त संयतानाम् ।। ३५ ।। हिंसाऽनृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरत- देशविरतयोः ॥ ३६ ॥ तत्त्वार्थाधिगमसूत्र के इन दोनों सूत्रों में दोनों अशुभ ध्यान के गुणस्थान बताए हैं,
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ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास"
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