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________________ पडता है ? कुछ भी नहीं। सिर्फ पर्याय बदलती है । ज्ञानादि गुण जो अन्तर्गत कालिक रूप से शाश्वत है, जो कर्मों से आच्छन्न थे, वे समस्त कर्मों के क्षय से प्रकट हो गए। बस, इसी अवस्था को मोक्ष कहा है । अतः कर्मरहित निरावरणावस्था ही मोक्ष है। यदि कोई कहे कि... मोक्ष को तो मानते हैं, परन्तु आत्मा को नहीं मानेंगे । यह तो बात ऐसी हुई जैसे मानो कोई कहे कि.. मैं बच्चे को तो मानें, लेकिन माँ को ही न मानें । तो फिर सोचिए कि बिना माँ के संसार में बच्चे का अस्तित्व कहाँ से होगा? माता बच्चे के लिए आधारभूत है । अतः माता के बिना बच्चे के अस्तित्व की कोई संभावना ही नहीं है । ठीक उसी तरह आत्मा को माने बिना मोक्ष को मानना यह माता को माने बिना बालक को मानने जैसी मूर्खता होगी। जैसे बालक माता के शरीर की निपज है, ठीक उसी तरह मोक्ष यह आत्मा की शुद्ध निरावरणी अवस्थाविशेष है। अतः आत्मा को माननेवाले आस्तिक व्यक्तिविशेष या दर्शनविशेष को मोक्ष मानना ही चाहिए । मानना अनिवार्य है। अन्यथा अर्थात् मोक्ष को न मानने में आत्मा विषयक मान्यता पूर्ण नहीं होगी । जैसे बालक का परिचय उसके माता-पिता के द्वारा होता है वैसे ही मोक्ष का परिचय आत्मा की संपूर्ण विशुद्धि से होता है और आत्मा का पूर्ण स्वरूप मोक्ष को मानने से ही होता है । मोक्ष वास्तव में आत्मा की कर्मरहित निरावरण शुद्ध अवस्थाविशेष ही है । अतः मोक्ष मानना बहुत आसान है। संसार की विपरीतावस्था मोक्ष संसार में कर्म के कारण आत्मा की जो जो अवस्था है उन सबका कर्मों के समूल क्षय होने से उन अवस्थाओं की स्थिति नहीं रहती है । “कारणाभावे कार्याभाव" अर्थात् कारण के न रहने पर कार्य का भी न रहना स्वाभाविक है । जैसे कारणरूप सूर्य के ही न रहने पर दिन भी नहीं रहेगा । मिट्टि के न रहने पर घडा भी नहीं रहेगा। माता के नही रहने पर बच्चा भी नहीं रहेगा। वैसे ही आत्मा के ही न रहने पर मोक्ष भी नहीं रहेगा। अतः आत्मा है तो मोक्ष है ही। आत्मा न हो तो मोक्ष सर्वथा नहीं रहेगा। “आत्माभावे मोक्षाभावः” । परन्तु “मोक्षाभावे आत्माभाव” नहीं हो सकता है। कदापि मोक्ष में न जानेवाली अभव्यात्माएँ संसार में है ही। अजीव जड का मोक्ष तो होना ही नहीं है। मोक्ष शब्द में प्रयुक्त 'मुञ्च' धातु छोडने छुडाने अर्थ में है। अतः मोक्ष शब्द का सीधा अर्थ है छूटना, छोडना । लेकिन यह धातु अर्थ में दो की ही अपेक्षा रखती है । छोडने की विरोधी धातु 'बन्ध' भी दो की ही अपेक्षा रखती है । बन्ध दो के बीच की अवस्था है। विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति" १४६७
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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