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________________ कोई एक किसी दूसरे के कारण बन्धन में बंधता है । अकेला एक ही हो वह कैसे बंधन में आएगा? सामने दूसरा बंधक तत्त्व भी होना तो चाहिए। अतः आत्मा और जड कर्म पुद्गल पदार्थ दोनों का अस्तित्व है । इसीलिए आत्मा कर्म से बंधती है । न की कर्म आत्मा से बंधता है । क्योंकि कर्म जड है । आत्मा चेतन है । जड अपने आप में निष्क्रिय है । अतः जड है । जबकि चेतन आत्मा सक्रिय द्रव्य है । संसारी अवस्था में क्रियाशील है । अतः आत्मा शुभाशुभ उभय प्रकार की क्रिया प्रवृति मन-वचन-काया से करके कर्माणुओं से लिप्त होती है। उस प्रक्रिया में बंधनेवाली आत्मा कर्म से बंधती है। कर्मग्रस्त अवस्था में कर्माधीन हो जाती है। जड पुद्गल पदार्थ एक भी कर्म नहीं बांध सकता है । क्योंकि जड में ज्ञान-दर्शनादि तथा राग-द्वेषादि नहीं होते हैं । वे बाह्याभ्यंतर दोनों प्रकार की क्रिया से सर्वथा रहित होते हैं। अतः उनको कर्म का बंध होने की बात ही नहीं रहती है। जब बंधन ही नहीं है जड के लिए तो फिर मुक्ति की बात करना भी मूर्खता है । अतःजो बन्धनग्रस्त है उसी की मुक्ति होगी । जीव ने ही कर्म बांधे हैं अतः कर्मों के बन्धन से मुक्ति भी जीव की ही होगी। होगी का मतलब अपने आप नहीं होगी । करने से होगी । पुरुषार्थ तो जीव को ही करना होगा। कर्म की मुक्ति नहीं होती है। जीव की कर्म से मुक्ति होती है। जैसे जीव के लिए बन्धन में भी कर्म नामक अन्य दूसरा तत्त्व था ठीक वैसे ही छुटकारा–मुक्ति के विषय में भी जीव के सामने दूसरा अन्य तत्त्व या द्रव्य कर्म है। कर्म से मुक्ति ही सच्ची मुक्ति है। इसीलिए शास्त्रकार स्पष्ट कहते हैं कि “कर्ममुक्ति किल मुक्तिरेव” कर्मों से छुटकारा–मुक्ति ही सच्ची मुक्ति है । इस कर्ममुक्ति के लिए कारणभूत जो कषायादि हैं उससे भी मुक्ति अनिवार्य है। अतः कहा है कि “कषायमुक्ति किल मुक्तिरेव" अर्थात् राग-द्वेषादि कषायों से मुक्ति ही सच्ची मुक्ति है। मोक्ष शब्द की शाब्दिक रचना में 'मो' अक्षर मोहनीय कर्म का प्रथम सूचक अक्षर है। तथा मोहनीय कर्म आठों कर्मों में सबसे बड़ा राजा है । अग्रेसर है । अतः मोहनीय कर्म का मुख्य व्यवहार करने से मोहादि सभी कर्म समझ लिए जाते हैं। इसलिए संक्षेप में मोहादि ८ कर्मों के लिए वाचक मोह शब्द बनाया है । तथा मोह का भी वाचक सूचक एक अक्षर 'मो' रखकर निर्जरा-क्षय का सूचक 'क्ष' अक्षर रखा जिससे 'मो' और 'क्ष' दोनों अक्षर जुडकर “मोक्ष" शब्द की रचना हुई। इससे यह स्पष्ट होता है कि..मोहनीयादि आठों कर्मों के बंधन से छुटकारा सदा के लिए मुक्ति होने को ही मोक्ष कहते हैं । इसीलिए "कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः” सही कहा गया है । इस शब्द से जो ध्वनित अर्थ निकलता है वही १४६८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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