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________________ का तथा जीव रचित औदारिकादि पुद्गल स्कंधों का भी होता है । और पारिणामिक भाव सभी द्रव्यों का होता है। अल्प-बहुत्व द्वार थोवा नपुंससिद्धा, थी नर-सिद्धा कमेण संखगुणा। नवतत्त्वकार १५ प्रकार से होनेवाले सिद्धों के बारे में कम-ज्यादा की संख्या में तुलना करते हुए लिखते हैं कि... सबसे कम नपुंसक लिंग से सिद्ध हुए सिद्धों की संख्या है, जबकि स्त्रीलिंग से मोक्ष में गए हए जीवों की संख्या संख्यात गनी ज्यादा है और स्त्रीलिंग से मोक्ष में गए हुए जीवों की अपेक्षा पुरुषलिंग से मोक्ष में गए सिद्धों की संख्या इनसे भी संख्यातगुनी ज्यादा है । इस तरह सभी १५ प्रकार से सिद्ध होनेवाले सभी प्रकारों में अल्प-बहुत्व की दृष्टि से तुलनात्मक दृष्टि से विचारणा शास्त्रों में की गई है । उसका विवरण पहले काफी कर चुके हैं । कृपया वहाँ से पुनः पढने का कष्ट करें । ____ इस तरह उपरोक्त नौं द्वारों से भिन्न-भिन्न दृष्टि से मोक्ष तत्त्व की मीमांसा की गई है । अनुयोग द्वारों से मोक्षादि तत्त्वों की विशद विस्तार से विचारणा करनी सुलभ हो जाती है । जिससे मोक्ष विषयक ज्ञान सबको सरलता से प्राप्त हो सके। आत्मा की शुद्धावस्था ही मोक्ष है सीधी बात इतनी ही है कि.. आत्मा की कर्मरहित सर्वथा निरावरणरूप सर्वथा शुद्धावस्था ही मोक्ष है । ध्यान में रखिए कि आत्मा को ही न माननेवाले के लिए मोक्ष कुछ भी नहीं है । है ही नहीं। क्योंकि मोक्ष कोई स्वतंत्र द्रव्यरूप पदार्थ या वस्तुविशेष नहीं है। यह तो एक मात्र आत्मा की सर्वथा कर्मरहित निरावरण अवस्थाविशेषरूप है। यदि कोई कहे कि... मैं तो बादलों से ढके हुए सूर्य को ही सूर्य मानूँ और यदि वह बादल से ढका हुआ ही न हो तो मैं उसे सूर्य ही न कहूँ, यह कैसी मूर्खता की बात होगी? अरे ! भले इन्सान ! चाहे बादल हो या न हो इन दोनों अवस्था में सूर्य को क्या फरक पडा? सूर्य तो जो बादलों से आच्छन्न था, वही बादलों के हट जाने के पश्चात् भी वही है । वैसा ही है। द्रव्यस्वरूप गुणादि के अस्तित्व में कोई अन्तर नहीं पडा, लेकिन पर्याय जरूर बदली । अवस्थाभेद हो गया। ठीक वही बात यहाँ भी है । आत्मद्रव्य दोनों में एक सा है, चाहे जीव कर्मग्रस्त संसारी अवस्था में रहे या फिर भले ही वह कर्मरहित सिद्धावस्था में रहे। आत्मा के एक अखण्ड असंख्य प्रदेशी ज्ञानादि गुणात्मक द्रव्य में क्या फरक १४६६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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