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________________ १) द्रव्य प्रमाण द्वार ___दव्वपमाणे सिद्धाणं जीवदव्वाणि हुंतिऽणंताणि । इस दूसरे द्रव्य प्रमाण द्वार में सिद्ध के जीवों की द्रव्य रूप से विचारणा की गई है। जैन दर्शन में प्रत्येक जीवों की स्वतंत्र गणना की गई है । प्रत्येक जीव स्वतंत्र है । एक एक की स्वतंत्र गणना करने पर संसार में अनन्तानन्त (अनन्त x अनन्त) जीव बताए गए हैं। अद्वैत वेदान्ती दर्शन समस्त ब्रह्माण्ड में मात्र एक ही जीव का अस्तित्व मानते हैं। बस, एक से दूसरा कोई है ही नहीं। इसलिए वे समस्त संसार में एक ही आत्मा मानते हैं । वे एकात्मवादी हैं । और उपाधि भेद से अनेक थालियों में एक ही सूर्य के प्रतिबिम्ब की तरह अनन्त की संख्या में मानते हैं । तर्क-युक्ति की दृष्टि से यह सर्वथा गलत सिद्ध होता है। क्योंकि.. जहाँ जहाँ जिस-जिस जीव को स्वतंत्र रूप से भिन्न सुख-दुःखों की अनुभूति होती है वहाँ वहाँ भित्र भिन्न जीवास्तित्व मानना चाहिए। एक को वेदना दुःखात्मक होती है दूसरे को संवेदना सुखात्मक होती है । अतः एकात्मवाद पक्ष सर्वथा मिथ्या सिद्ध होता .. जैन दर्शन अनन्तात्मवादी दर्शन है । “प्रतिक्षेत्रं भिन्न” विशेषण देकर वादिदेवसूरि म.ने प्रमाणनय तत्त्वालोक ग्रन्थ में विशद विचारणा करते हुए स्पष्ट किया है कि...प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्नं आत्मा का अस्तित्व है। कर्मजन्य उपाधि के कारण सूक्ष्म-स्थूल-स्थावर-त्रसादि जीवों में भिन्न-भिन्न स्वतंत्र जीव रहते हैं। तथा मोक्ष में जाने के पश्चात् वहाँ भी अनन्त जीवों का अपना स्वतंत्र ही अस्तित्व रहता है । द्रव्य प्रमाण द्वार से यही सिद्ध करके अनन्त की संख्या सूचित की है। काल व्यवहार कारक है । काल भूतकाल में अनन्त काल बीत गया है । अनन्त पुद्गल परावर्त काल बीत चुका है तो उसके वर्ष कितने बीते? अनन्त x अनन्त । और उसके महीने कितने हुए? अरे ! उसके दिन कितने हुए? अरे ! उसके भी कलाक..(घंटे) कितने हुए? अनन्त x अनन्त । अरे ! उसके समय कितने हुए? ... आखिर अनन्त x अनन्त के सिवाय उत्तर देने के लिए और दूसरा शब्द हो ही क्या सकता है । बस, भाषा में अनन्त शब्द ही अन्तिम शब्द है, अतः अनन्त का अनन्त बार गुणाकार करने के लिए अनन्त x अनन्त शब्द प्रयोग किया जाता है। अब यह सोचिए १ समय में १०८ उत्कृष्ट से सिद्ध हो सकते हैं तो अनन्त x अनन्त समयों में कितने मोक्ष में गए होंगे? लेकिन प्रत्येक समय तो जाते भी नहीं है । अतः जघन्य से १ समय में १ सिद्ध ऐसी बराबर संख्या १४४८ . आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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