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________________ आधारभूत पदार्थ कौनसा है ? आत्मा । आत्मा के बिना कर्म किसको लगेंगे? जड पुद्गलपदार्थ को तो कर्म लगते ही नहीं है। ३) उदाहरण में- जो जो पद होते हैं उनके अर्थ होते ही हैं । जैसे घोडा, गाय, आदि पद हैं । वैसे ही मोक्ष भी एक अर्थवाची अर्थपूर्ण पद है । जैसे गाय-घोडा आदि पदों से वाच्य पदार्थ हैं । संसार का नियम है कि कोई भी पदार्थ जो संसार में विद्यमान होते हैं उनका वाचक कोई न कोई नाम-शब्द होता ही है । और संसार में जो भी कोई एक नाम या पद हो उसका वाचक कोई न कोई पदार्थ अवश्य होता है। अतः संसार में एक भी पदार्थ ऐसा नहीं है जिसका वाची नाम-पद न हो । या ऐसा कोई एक भी नाम या पद नहीं है जिसका कि वाच्य कोई न कोई पदार्थ न हो । अर्थात् अनिवार्य रूप से होता ही है। आत्मा या मोक्ष ये दोनों ही सत् भूत दार्थ है तो ही उनके वाचक नाम-पद हैं । यदि पदार्थ न हो तो ये शब्द निरर्थक हो जाते हैं फिर किसके वाचक इसको मानेंगे? इसलिए वाच्य-वाचक भाव संबंध से पद और पदार्थ दोनों का अस्तित्व रहता है । 'उपनय' मोक्ष यह शुद्ध पद है अतः उसका अर्थ है । निगमन-इस 'मोक्ष' पद के अर्थ रूप जो पदार्थ है वही मोक्ष होता है । इस तरह मोक्ष यह व्युत्पत्तिमूलक पद है । अर्थशून्य शब्द को पद नहीं कहा जाता है । “सिद्ध" "मोक्ष" ये दोनों अर्थवाले पद हैं। १४ मार्गणाएं. गइ-इंदिए-अकाए, जोए, वेए कसाय-नाणे अ। संजम-दंसण-लेसा, भव सम्मे सन्नि-आहारे ।। ५५॥ १) ४ गति, २) ५ इन्द्रियाँ, ३) ६ काय, ४) ३ योग, ५) ३ वेद, ६) ४ कषाय,७) ८ ज्ञान, ८)७ संयम, ९) ४ दर्शन, १०)६ लेश्या, ११) २ भव्य, १२) ६ सम्यक्त्व, १३)२ संज्ञि, १४) २ आहार । इस प्रकार ये १४ मूलभूत मार्गणाएँ हैं । इनके कुल ६२ भेद होते यहाँ मार्गणा अर्थात् शोधन पद्धति । जैन शास्त्रों में किसी भी पदार्थ का विस्तार से गहरा विचार करने के लिए उसका विशद स्वरूप खोलने के लिए उपरोक्त १४ प्रकार की मूल और ६२ प्रकार के द्वारों पर घटित करके देखना चाहिए। यह भी एक प्रकार की पद्धति है। या अनुयोग द्वार रूप ही एक पद्धति है। “तस्स उ परुवणा मग्गणाई हिं" नवतत्त्व की ४४ वी गाथा में इन शब्दों के प्रयोग से ऐसा संकेत किया है कि...मोक्ष तत्त्व की भी उपरोक्त मूलभूत १४ और अवान्तर ६२ भेदों से विचारणा करने से मोक्ष तत्त्व की विशद विचारणा हो सकती है। १४४६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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