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________________ फिर कर्मरहित, कर्मक्षय की संपूर्ण शुद्ध अवस्था को मानने-जानने- स्वीकारने में रत्तीभर भी आपत्ति नहीं ही आनी चाहिए। जैन दर्शन में मोक्ष को आत्मा की निरावरणरूप कर्मरहित शुद्ध अवस्थारूप माना है । इसलिए मोक्ष कोई द्रव्य नहीं है । पदार्थ रूप नहीं है । अस्तिकायात्मक सत्तारूप द्रव्य विशेष नहीं है । यह तो अवस्था विशेष है । द्रव्य तो चेतन आत्मा नामक पदार्थ है । और मोक्ष आत्मा की कर्मबंधन रहित शुद्धावस्था है । अतः यह मोक्ष सत् तत्त्व है । सत्तारूप से अस्तित्वधारक सत्त् तत्त्व है। इसलिए सूर्य की तरह बिल्कुल स्पष्ट सत्य जैन दर्शन ने प्रस्तुत किया है। अतः इसे आकाश कुसुम की तरह असत् पदार्थ न मानें । इसी पर हमारे सम्यग् दर्शन का आधार है । "नवतत्त्व " प्रकरण ग्रन्थ इसे स्पष्ट करते हुए कहता है कि संतं सुद्ध पयत्ता, विज्जंतं खकुसुमंव्व न असंत्तं । मुक्खत्ति पयं तस्स उ, परुवणा मग्गणाईहिं ॥ ४४ ॥ “मोक्ष” यह सत् अर्थात् अस्तित्वधारक तत्त्व है । शुद्ध पद होने के कारण विद्यमान है। त्रैकालिक अस्तित्व है इसका । आकाश कुसुम के जैसा अभावात्मक नहीं है । “मोक्ष” यह एक पदविशेष है । तथा मार्गणा हेतु द्वारा उसकी विचारणा की जाती है । I पंचावयववाक्य द्वारा मोक्ष सिद्धि गौतमी नव्य न्यायदर्शन में किसी भी पदार्थ की सिद्धि के लिए "पंचावयव” पद्धति अपनाई गई है । जिसमें १) प्रतिज्ञा, २) हेतु, ३) उदाहरण, ४) उपनय और ५) निगम इन पाँच वाक्यों का प्रयोग कर के विचारणा करने से पदार्थ की सिद्धि होती है ऐसा न्यायशास्त्र का कथन है। १) प्रथम प्रतिज्ञा में जिस पदार्थविशेष की सिद्धि करनी हो उसकी प्रतिज्ञा अर्थात् संकल्प करना । दूसरे क्रम पर उसकी सिद्धि के लिए कारण देना उसे हेतु कहते हैं। तीसरे क्रम में उस सिद्धि के अनुरूप दृष्टान्त (उदाहरण) प्रस्तुत करना । चौथे में उदाहरण के अनुरूप घटाने की बात को उपनय कहते हैं तथा अन्त में पाँचवा जो निगमन है इसमें प्रतिज्ञा के अनुरूप सिद्धि घोषित करनी होती है । संक्षिप्त रूप से इन पंचावयव वाक्यों से सिद्धि की जाती है । T I प्रस्तुत प्रकरण में साध्य मोक्ष तत्त्व है । १) प्रथम जिसकी सिद्धि करनी है उस मोक्ष की प्रतिज्ञा करनी । यह एक विद्यमान् अस्तित्व धारक सत् पदार्थ है । असत् अभावात्मक पदार्थ को क्या सिद्ध करना ? २) दूसरे में - अकेले पद के अर्थरूप होने से विद्यमानता हेतु से सिद्ध होती है । मोक्ष है इसमें कारण कौन है ? कर्म का अभाव और कर्म का विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति " १४४५
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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